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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिकी ६६३ कल्पना की है जो कफजनित उपद्रवों का कर्ता भी है । अन्न की आमावस्था के पश्चात् विदग्धावस्था आती है वह पित्तदोषवर्धक है तथा पश्चात् विष्टब्धावस्था अन की आती है जो आम और विदग्ध हुए अन्न को विष्टम्भयुक्त करके वातिक विकारों की उत्पत्ति का कारण बनती है । अजीर्ण की ये एक के बाद दूसरी क्रमिक अवस्थाएं भी हो सकती हैं और स्वतन्त्र अवस्थाएँ भी । आयुर्वेद ने सम्पूर्ण पचनसंस्थान के अन्दर दुर्बलाग्नि की कल्पना की है। जब वह श्लेष्मस्थान ( आमाशय ) में अधिक दुर्बलता को प्राप्त हुई है तो आमाजीर्ण की अवस्था बनेगी । पच्यमानाशय पित्तकारक विदग्धाजीर्ण का रूप लावेगा तथा पक्वाशय विष्टब्धाजीर्ण बनावेगा । पर अग्निदौर्बल्य सम्पूर्ण पचनसंस्थान में व्याप्त है अतः आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण और विष्टब्धाजीर्ण की अवस्थाएँ एक के बाद दूसरी आरम्भ में बनकर तीनों युगपत् भी रह सकती हैं पर व्यक्ति की प्रकृति, देश, कालादि की दृष्टि से इनमें कोई एक प्रबल और शेष गौण रूप में देखी जा सकती है । मुख्यतः यही तीन अजीर्ण होते भी हैं। शेष रसशेषाजीर्ण, दिनपाकी और प्राकृत अजीर्णावस्था विशेष महत्त्व की नहीं हैं । रसशेष अजीर्ण में आहार द्वारा रस बनने के बाद आहार का कुछ अपरिपक्क अंश रह जाता है वह जबतक पूर्णतया परिपक्व नहीं होता उससे पूर्व ही डकारें आकर सूचना कर देती हैं कि सब पच गया पर यथार्थ में पाचनक्रिया शेष रहती है । इसी लिए इसे रसाय शेषो रसशेष ऐसा माना इसमें सम्पूर्ण भोजन का ठीक-ठीक परिपाक नहीं होने से रोगी दुर्बल होता और नागार्जुन के शब्दों में— गया है । जाता है। उद्गारेऽपि विशुद्धतामुपगते कांक्षा न भक्तादिषु । स्निग्धत्वं वदनस्य सन्धिषु रुजा कृत्वा शिरोगौरवम् ।। मन्दाजीर्णरसे तु लक्षणमिदं तत्रातिवृद्धे पुनः । हृल्लासज्वर मूर्च्छनादि च भवेत् सर्वामयक्षोभणम् ॥ एक स्पष्टतः विशेष रोग का परिचायक होता है । इस पर गदाधरादि ने भी ऊहापोह किया है । गदाधर ने रसे शेषो रसशेषः, आहारजनिते रसे शेप आहारावयवोऽनुप्रविष्टोऽलक्ष्यमाणः क्षीरेनीरमिवाशेषः । कह कर बड़े ही सूक्ष्मभेद की ओर इङ्गित किया है । शरीर में परिपक्क रस धातु की निर्माण स्वस्थावस्था का द्योतक है पर यह भी सम्भव है कि आहार का कुछ रस पूर्ण परिपक्क हो और कुछ अपक्क ही शरीर में संचरण के लिए चल पड़े। इसी अपक्कंश में जब बात अपक्क रहती है तो वातिक, पित्तांश अपक रहता है तो पैत्तिक तथा कफांश अपक रहने पर कफज व्याधियाँ शरीर में व्याप्त हो जाती हैं। रसशेषाजीर्ण सुश्रुत द्वारा मान्य नहीं है । उसने तो आम, विदग्ध और विष्टब्ध अजीर्ण में ही इसे समाविष्ट कर लिया है पर अन्यों का मत उसने दे दिया है । विजयरक्षित ने आमादि को अन्न और रसशेष को आहार रसज ऐसे दो भेद किए हैं। पर यथार्थता कुछ और ही है । आमाजीर्ण में रसशेषाजीर्ण रहता ही है । क्योंकि कफ के कोप के कारण आहार का कफज अंश कुछ पक और कुछ अपरिपक्क रूप में अन्न रस में मिल रहा है । यही दशा अन्य अजीणों में अन्य दोषों की है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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