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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिकी ६६१ कर ही लेना होगा। आचार्यों ने जो अजीर्ण के कारण लिखे हैं उनका नाम स्मरण करना यहाँ युक्तियुक्त ही है। अजीर्ण के कारण काश्यपसंहिता के भोज्योपक्रमणीय नामक अध्याय में अजीर्ण वा अपचन के निम्न कारण दिये गये हैं: अतिस्निग्धातिशुष्काणां गुरूणां चातिसेवनात् । जन्तोरत्यम्बुपानाच्च वातविण्मूत्रधारणात् ॥ रात्री जागरणात् स्वप्नाद्दिवा विषमभोजनात् । असात्म्यसेवनाच्चैव न सम्यक् परिपच्यते ॥ सुश्रुतसंहिता में इस पर निम्न वाक्य मिलते हैं: अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाद्वा सन्धारणात्स्वप्नविपर्ययाच्च । कालेऽपि सात्म्यं लवु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य । ईर्ष्याभयक्रोधपरिक्षतेन लुब्धेन रुग्दैन्यनिपीडितेन । प्रद्वेषयुक्तेन च सैव्यमानमन्त्रं न सम्यक् परिपाकमेति ॥ अत्यन्तस्निग्ध पदार्थों के अधिक सेवन से अजोर्ण उसी प्रकार उत्पन्न होता है जैसे बहुत अधिक घृत को अग्नि पर उँडेल देने से वह बुझ जाती है। कई व्यक्ति जो बहुत मात्रा में मैसूर पाक या सूजी का हलवा खा लेते हैं उनकी भूख मारी जाती है। ___अधिक सूखे पदार्थों के सेवन से वायु बढ़ कर पाचन क्रिया में वैषम्य उत्पन्न कर देती है जिससे भोजन का परिपाक यथावत् नहीं होने पाता। गुरु द्रव्यों का उपयोग करना विशेष कर उन लोगों को जो रोग से पीडित हैं या जो रोग से अभी-अभी ही छूटे हैं या जिन्हें विष्टम्भ आदि रहता है सदैव अजीर्ण कारक होता है। अतिसेवन चाहे फिर कितना ही हलका पदार्थ क्यों न हो अजीर्णकारक हुआ करता है। अत्यम्बुपान अर्थात् बहुत अधिक जल पीना उसी प्रकार अजीर्णकारक होता है जैसे बहुत सा जल डालना अग्नि को बुझाने में सफल होता है। वेगरोध से वायु प्रकुपित होती है। वात का प्रकोप सदैव पाचनक्रिया में वैषम्य उत्पन्न करके अजीर्णोत्पत्ति कर देती है। रात्रिजागरण वातकारक है विषमभोजन शरीर की शक्तियों के सामञ्जस्य के. लिए विघटनात्मक सिद्ध होता है। असात्म्य पदार्थों का प्रयोग करने से शरीर उसे ग्रहण करने में असमर्थ रहता है। दिवा स्वप्न अथवा रात्रिजागरण रूप स्वप्नविपर्यय की एक ऐसी अवस्था है कि कितना ही साम्य और लघु भोजन किया जावे वह ठीक-ठीक जीर्ण नहीं हो पाता । वेगसंधारण से भी यह हो सकता है। ____ आहार के पचन में मन का अनिवार्यतया स्थायी भाग रहता है। सभी जानते हैं कि पूर्ण स्वादिष्ट और रसपूर्ण पदार्थ बने होने पर तनिक सी भी अनबन होने पर खिन्नमना बालक या तरुण भोजन नहीं कर सकता और यदि बड़ों की डॉट फटकार पर ८१,८२ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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