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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ६४१ रोगारम्भ में रक्त के लालकणों की संख्या में कोई महत्त्व की कमी प्रकट नहीं होती पर आगे चल कर उत्तरोत्तर लालकणों की कमी होने लगती है और रक्तक्षय बढ़ने लगता है। उसका कारण यह है कि लालकण संजनक ऊति में मजाभ कोशाओं की भीड़ लग जाती है जो उसके प्रकृत कार्य में पर्याप्त और स्थायी बाधा डालते हैं। कम होते-होते लालकणों की संख्या १० लाख प्रतिघन मिलीमीटर तक जा सकती है। इस मज्जोत्कर्ष में बृहन्न्यष्टिकोशा (megacarycytes ) भी खूब भाग लेते हैं । जिसके कारण रक्त में बिम्बाणुओं की संख्या में खूब वृद्धि होती है। रक्त में ये वृहन्न्यष्टिकोशा भी उपस्थित देखे जा सकते हैं। इनकी संख्या १० से २० लाख तक पहुँच जाती है। ___ कल्पना कीजिए एक ऐसे रक्त चित्र की जिसमें १० लाख लालकण हो १० लाख श्वेतकण हों तथा १० लाख ही बिम्बाणु हो !! कितना भयानक होगा वह दृश्य । पर इस रोग में यह भी सम्भव है। यतः लसकायाणु अस्थिमजा द्वारा नहीं बनते इसलिए इस रोग में उनका प्रतिशत गणन बहुत कम हो जाता है। उपरोक्त विवरण के प्रकाश में यदि हम विविध अंगों का ध्यान दें तो पता चलेगा कि रोग का मुख्य और एकमात्र आधार मज्जाभ ऊतियों की सितरुहीय क्रियाशीलता की अतिमात्र वृद्धि है। इसमें अस्थि की लालमज्जा अप्रगल्भ सितकोशाओं से डटकर भर जाती है । अस्थि की पीतमज्जा भी अपनी निष्क्रियता का परित्याग करके सक्रियरूप में इन सितकोशा पूर्वजों की उत्पत्ति में परमवेग से संलग्न हो जाती है। पीतमज्जा समय-समय पर रंग बदला करती है । कभी वह धूसर वर्ण धारण करती है तो कभी बभ्र तो कभी लाल। अस्थिमज्जा में यद्यपि मुख्यतया क्लीबरंज्य बह्वाकारी सितकोशा और उसके पूर्वज मजकोशा पाये जाते हैं पर उपसिप्रिय तथा क्षारप्रिय या पीठरंज्य सितकोशा और उनके पूर्वजों की उपस्थिति भी कम नहीं होती। रोग की अन्तिम अवस्था में अकणात्मक मजकोशा प्रचुर संख्या में रक्त में प्रवेश करते हुए पाये जाते हैं। प्लीहा इस रोग में आकाश पाताल एक कर देती है। ढाई छटॉक के प्रकृत भार वाली प्लीहा सम्पूर्ण उदर क्षेत्र को भर देती है। उसका भार १० सेर तक जा सकता है । इसका गोद और संधार खूब बढ़ता है जिनमें मालपिषियन कायाएँ (malpighian bodies ) अस्पष्टतया दिखलाई पड़ती हैं। उसका गोर्द सब प्रकार के कणात्मक सितकोशाओं से टुंसकर भरा होता है। प्लीहा की क्षुद्र वाहिनियों में सितकोशीय घनास्रों के द्वारा अनेकों ऋणास्त्र ( infarcts ) बन जाते हैं और उनके आपीत क्षेत्र इतस्ततः देखने में आते हैं। प्लीहा का वर्ण असित (dark ) हो जाता है। अण्वीक्षण करने पर प्लीहा से लसाभऊति तिरोहित हो जाती है। तथा प्लीहा के गोद का तथा अस्थिमज्जा की रचना लगभग एक हो जाती है क्योंकि दोनों ही मजाभ कोशाओं से भरे रहते हैं उनमें ऋजुरुह ( normoblasts) भी पाये जाते हैं। जहाँ यह सत्य है कि प्लीहा इन सितकोशाओं को रोककर उन्हें नष्ट करने का असफल प्रयास करती For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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