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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ विकृतिविज्ञान इस कारण इस रोग में रंगदेशना बहुधा १ से नीचे ही रहा करता है। इस रोग का दूसरा महत्त्वपूर्ण लक्षण होता है सितकोशोत्कर्ष का । रक्त में सितकोशाओं की संख्या २५००० प्रतिघन मिलीमीटर तक देखी जा सकती है। इस रोग का तीसरा मुख्य लक्षण होता है प्लीहाभिवृद्धि का। रक्त मज्जा में लालकण निर्माण का कार्य द्रुतगति से हुआ करता है तथा मृत्यूत्तर परीक्षण पर इसे सरलता से प्रमाणित भी किया जा सकता है। रोगी के शरीर में रक्त का आयतन ( total blood volume) भी बहुत बढ़ जाता है। शरीर की सिराएँ खूब विस्फारित होती हुई देखी जाती हैं। उनमें खूब रक्त भरा रहता है। अधिक रक्त के कारण रोगी का वर्ण श्याव पड़ जाता है। श्यावता का मुख्य कारण होता है रक्त प्रवाह की गति में मन्दता का होना । रक्त में कोशाओं की अधिकता होने से रक्त के आलगत्व (viscosity ) में वृद्धि हो जाती है। इस रोग के कारण का पता नहीं लगता पर यतः इसमें अस्थिमज्जा का परमचय होता है तथा प्लीहा की अभिवृद्धि देखी जाती है और एक प्रकार के हो कोशा की अतिशय वृद्धि होती है इससे इसे जालकोत्कर्ष ( reticulosis) कहा जा सकता है। इस रोग में अङ्गलियों के अग्रभाग स्थूल हो जाते हैं ( clubbing of the fingures ) यदि इस रोग से पीडित रोगी का कान उमेठ दिया जाय तो स्थानीय सिराएँ फट कर उनसे काले रंग का रक्त बहने लगता है। __परमबल बहुकोशारक्तता ( Polycy thaemia hypertonica ) एक दूसरा प्रकार है इसे गायस्बौक का रोग ( Gaisbock's disease ) कहा करते हैं। इसमें उपर्युक्त रोग के सब लक्षण मिलते हैं पर पलीहाभिवृद्धि नहीं होती साथ ही इस रोग में रक्त पीडन ( blood pressure ) काफी बढ़ जाता है। इससे धमनी जारठ्य ( arterio-sclerosis) भी मिलता है। इस रोग का परिणाम हृदभेद, मस्किष्कगतरक्तस्राव अथवा घनास्रोत्कर्ष में होने के कारण ६ वर्ष में मृत्यु हो जाती है। सितरक्तता ( Leukaemia) इसे सितोत्कर्ष ( leucosis ) अथवा सितकोशीय रक्तता ( leucocythaemia) इन दो नामों से भी पुकारा जाता है। इस रोग के अन्दर उन विकारों का समावेश किया जाता है जो रक्त और रक्तोत्पादक अङ्गों की विकृति से उत्पन्न होते हैं। इनसे पीडित मनुष्य का शरीर कृश होता चला जाता है वह उत्तरोत्तर दुर्बल होता हुआ देखा जाता है तथा रक्तस्राव से पीडित रहता है। सब प्रकार की सितरक्तताओं में कुछ लक्षण समान होते हैं। जालकान्तश्छदीय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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