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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir afar वैकारिकी ६३५ 1 हो जाता है । इसमें भी अपरा प्रकृत आकार से बड़ा होता है तथा गर्भ का लेप पीला पाया जाता है । रक्तक्षय परमवर्णिक होता है । अस्थिसौषिर्य, यकृवृद्धि, प्लैहिक वृद्धि तथा मज्जा के बाहर समसंजनन क्रिया खूब होती हुई देखी जाती है । ३. नवजातीय शोणांशिक रक्तक्षय ( haemolytic anaemia of the new born ) - यह जीवन के आरम्भिक सप्ताहों में देखा जाता है । इसमें मृदु स्वरूप का रक्तक्षय पाया जाता है जिसके साथ पाण्डु सदा उपस्थित नहीं रहा करता । यह रक्तक्षय परमवर्णिक होता है । लालकण १० लाख प्र. घ. मि. मी. तक रह जा सकते हैं। रक्त में सन्यष्टिकोशाओं तथा जालकीय कोशाओं की उपस्थिति इसका प्रमाण है कि रक्तसंजनन केन्द्र पूरे वेग के साथ कार्य कर रहे हैं । प्लीहाभिवृद्धि तथा मूत्र में मूत्रपित्तिजन तथा मूत्रपित्ति का खूब उत्सर्ग देखा जाता है । इन तीनों रूपों का सम्बन्ध कारक ( rh factor ) से है जिसका वर्णन विस्तार के साथ पहले हो चुका है। फानयक्षीय रक्तक्षय ( Von Jaksch's anaemia ) – इसे शिशुओं का प्लैहिक रक्तक्षय ( splenic anaemia of the infants ) भी कहा जाता है । यह एक प्रकार का रक्तक्षय है जो शिशुओं में २ वर्ष की अवस्था तक पाया जाता है । साथ में यकृत् बढ़ा हुआ होता है तथा रक्त में सितकोशोत्कर्ष भी पाया जाता है । इस रोग में रक्त के लालकर्णो की संख्या प्रतिघन मिलीमीटर १० लाख या उससे भी कम हो जाती है । उनके आकार तथा रूप में परिवर्तन हो जाता है अभिरंजना में भी अन्तर आ जाता है । रक्त में ऋजुरुह तथा जालककायाणु प्रचुर संख्या में मिलते हैं । कभी कभी बृहद्रक्तरुह ( megaloblasts ) भी मिल जाते हैं । । रक्त के श्वेतकणों का गणन ५०००० प्रतिघन मिलीमीटर या उससे भी अधिक चला जाता है । इनमें भी बहुन्यष्टिकोशाओं में मुख्यतया वृद्धि होती है । उसके बाद लसकायाणुओं की संख्या भी बढ़ी हुई होती है । मज्जकोशा ( myelocytes ) भी देखे जाते हैं । इस रोग में शोणांशिक प्रकार का रक्तक्षय पाया जाया करता है । फानडेन बर्षीय प्रतिक्रिया अप्रत्यक्ष मिलती है । प्लीहा की आकार में और उसकी दृढता में वृद्धि इस रोग में देखी जाती है । प्लीहोच्छेद करने पर रक्त में सन्यष्टिकोशाओं की वृद्धि होने लगती है और बालक की अवस्था में सुधार होने लगता है । जिन शिशुओं को यह रक्तक्षय देखा जाता है उनके अन्दर अन्य रोगों की उपस्थिति का भी ध्यान रखना चाहिए। किसी को फक्क, किसी को यक्ष्मा अथवा किसी को सहज फिरंग की उपस्थिति देखी जा सकती है । इन्हीं रोगों के कारण रक्त में ये सब परिवर्तन होते हैं ऐसा भी बहुतों का अनुमान है । रक्तचित्र सितरक्तता (ल्यूकीमिया ) से मिलता जुलता होने के कारण निदान में कभी कभी कठिनाई आ सकती है पर वास्तविक सितरक्तता शिशुओं में कभी For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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