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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ विकृतिविज्ञान लगता है मानो कि वे किसी ग्रन्थि के अधिच्छद मात्र हो । प्लीहा की लसकूपिकाएँ (lymph follicles ) एक दूसरे से इतनी अधिक अलग हो जाती है कि उनकी संख्या कम हो गई हो ऐसा आभास होने लगता है । ब्वायड लिखता है कि एक रोगी की प्लीहा के मज्जकीय भाग के बाहर रक्त-संजनन क्रिया ( extramedullary haemopoiesis) स्पष्टतः उसने देखी है । यह क्रिया उसमें गम्भीर स्वरूप को रक्तक्षय के कारण देखी गई थी । प्लैह स्रोतसों के अन्तश्छदीय कोशाओं में एक प्रकार की प्रतिक्रिया वहाँ उपस्थित रङ्गा के कारण देखी जाया करती है । जिसके कारण वहाँ के लोहे का उपयोग होकर अत्यन्त आवश्यकता पड़ने पर रक्तसंजनन क्रिया चला करती है । अन्तश्छदीय कोशा चिपटापन छोड़कर अण्डाकार होते हुए देखे जाते हैं । रोग की तीव्रावस्था में जब प्लीहा का उच्छेद किया जाता है तभी इस लोहे की उपस्थिति पाई जा सकती है । इस रोग में प्लीहा की ( trabeculae ) तथा जालक ( reticulum ) स्थूलित नहीं हो पाते यह बैण्टी के रोग में सदैव स्थूलित हो जाया करते हैं । धमनिकाओं के चोलों (media ) में काचरीय स्थौल्य ( hyaline thickening ) पाई जा सकती है । जालकान्तश्छदीय कोशाओं में परमचय तथा लालकणों का भक्षिकायोत्कर्ष खूब होने पर भी संधार का तन्तूत्कर्ष द्वारा स्थूलन नहीं देखा जाता । प्लीहा में ऋणास ( infarcts ) मिल सकते हैं। आबभ्रुवर्ण के ग्रन्थक जिन्हें गैण्डीगैम्ना ग्रन्थक (gandy-gamna nodules ) कहा जाता है पाये जाते हैं । ये ग्रन्थक छोटे छोटे प्लैहिक रक्तस्रावों के रूप में प्रकट होते हैं जिनके बाद रक्त का अंशन तथा तन्तूरकर्ष हुआ करता है । श्लेषजन ( collagen ) के फूले हुए तन्तुक (fibrils ) लोहे के रंगा के भरे हुए पाये जाते हैं जिनके चारों ओर बाह्यकाय महाकोशा ( foreign body giant cells ) रहा करते हैं । २. प्लीहा के अतिरिक्त अन्य जालकान्तश्छदीय संस्थान के अंगों विशेषकर यकृत् तथा अस्थिमज्जा में शोणांशिक क्रिया विशेष हो जाती है। उनमें रक्त का रंगा (blood pigment ) खूब पाया जाता है । ३. वृक्क और यकृत् के जीवितक कोशा खूब रंगान्वित हो जाते हैं। थोड़ा सा यकृत् बढ़ जाता है उसमें लोहोत्कर्ष ( siderosis ) पाई जाती है । पित्तरक्ति के अश्म पित्ताशय में बहुत होते हैं जो पित्ताश्मरी के लक्षण उत्पन्न कर देते हैं । ४. अस्थिमज्जा में परमचय खूब होता है । तथा रक्त के लाल कणों के पुनर्जनन के लिए क्रियाएँ द्रुत गति से चलती हैं । वह गहरे लाल रंग की हो जाती है । यह परमचय ऋजुरुहीय होता है बृहद्रक्तरुहीय ( megaloblastic ) नहीं मिलता । करोटि की अस्थियों में अस्थि वैरल्य ( rarefaction of skull bones ) खूब होता है उसका कारण मज्जा में परमचय का होना तथा दण्डिकाओं (trabeculae) का प्रचूषण है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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