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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ६.१६ श्लेष्मलकलाओं ( mucous membranes ) तथा लस्यकलाओं (serous membranes ) में भी रक्तस्राव होता है। आँतों में, मूत्रवहमार्ग में, गर्भाशय में रक्तस्राव हो सकता है। कभी कभी इस रोग का पता नहीं चलता है और थोड़ा सा आघात या शस्त्रकर्म रक्तस्राव को आरम्भ कर देता है। ___ इस रोग में रक्तचित्र रोग की गम्भीरता के अनुसार बदलता है। साथ ही बिम्बाणुओं की कमी के अतिरिक्त अन्य कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं देखा जाता है। इस रोग के तीव्र और जीर्ण दो रूप मिलते हैं। जीर्ण में थोड़ी प्लीहा वृद्धि भी मिलती है। तीव्र रूप बहुत कम मिलता है पर जब यह होता है तो थोड़े ही सप्ताहों में रोगी की जीवनलीला समाप्त करने में समर्थ हो जाता है। जीर्णरोग महीनों और वर्षों चल सकता है। विकार के कारण के सम्बन्ध में अभी पूरी खोज नहीं हो सकी है। कुछ विद्वानों का विचार है कि जिस प्रकार घातक रक्तक्षय में रक्त के कणों के निर्माण में बाधा पड़ती है उसी प्रकार इस रोग में बिम्बाणुओं की उत्पत्ति अस्वाभाविक रूप में होती है और कि जालकान्तश्छदीय संस्थान इनका विनाश कर देता है। कुछ विद्वानों का मत है कि जालकान्तश्छदीय संस्थान के द्वारा बिम्बाणुओं का विनाश ही बिम्बाणुओं के अपकर्ष का मुख्य हेतु है। इसका प्रमाण वे देते हैं कि यदि रोगी का प्लीहोच्छेद ( splenectomy ) कर दिया जाय तो बिम्बाणुओं की संख्या में वृद्धि होकर उनकी संख्या प्रकृत हो जाती है। किसी किसी में प्लीहोच्छेद के पश्चात् होने वाला बिम्बाशूल्कर्ष स्वल्पकालिक होता है और थोड़े समय पश्चात् पुनः वह अपनी अपकर्षावस्था ग्रहण कर लेता है। पर एक बात महत्त्वपूर्ण होती है कि रक्तस्राव की प्रवृत्ति सदा के लिए ठीक हो जाती है (ग्रीन)। प्राथमिक या उत्तरजात दोनों प्रकार के नीलोहा में केशाल प्राचीर की वृद्धिंगत भंगुरता ( increased fragility of the capillary walls ) मुख्य है। जिसके कारण रक्त उनकी प्राचीरों से चू जाता है। हैस ने इस भंगुरता को नापने के लिए एक परीक्षा स्थिर की है जिसके अनुसार रोगी की बाहु में टूर्नीके बाँधकर कस देते हैं इसमें उपरिष्ठ वाहिनियाँ तो दब जाती हैं पर नाड़ी चलती रहती है। कुछ मिनटों के बाद देखने में आता है कि केशाल प्राचीरों से रक्तस्राव उनकी भंगुरता की कोटि के प्रमाण में हो गया है। इस परीक्षण से केशाल प्राचीरों की प्रतिरोधक शक्ति का पता लगता है। तरुणाई के पूर्व इस रोग से पीडित ४०% मिलते हैं। किशोर और किशोरियाँ दोनों एक बराबर इससे व्यथित देखे जाते हैं पर तारुण्यकाल और उसके पश्चात् इस रोग से पीडितों में युवतियाँ अधिक पीडित देखी जाती हैं। मासिक धर्म, गर्भावस्था में अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की क्रियाशीलता सम्भवतः इसका कारण हो जिसके साथ साथ अवटुकविषोत्कर्ष ( thyrotoxicosis ) का भी सहवास हो सकता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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