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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१० विकृतिविज्ञान नावाधिक्य तथा अन्य कारणों से उत्पन्न रक्ताभाव से अथवा वृद्धिंगत तारुण्यकालीन लोहे के लिए अधिक मांग बढ़ने के फलस्वरूप लोहाभाव की सम्भावना रहती है। और ये ही कारण इस हरे रोग के कर्त्ता भी होते हैं । ब्वायड का कथन है कि लड़कियों के स्वाभाविकतया होने वाले परिवर्तनों की अतिशयता ( exaggeration ) का ही पर्याय हरिदुत्कर्ष है जो १०% लड़कियों में बहुधा हुआ करते हैं । पाश्चात्य विद्वान् इस रोग के क्रमिक हास का कारण स्त्रियों के आरामतलब जीवन का परित्याग जो पश्चिम में इस समय स्त्रियों की सक्रियता से प्रमाणित होता है, पाया जाता है । अब इस रोग का एक सौम्य रूप दृष्टिगोचर होता है जिसे लोह प्रयोग से सरलतया सुधारा जा सकता है । यह रोग युद्ध पूर्व काल में जहाँ हास को प्राप्त हो रहा था वहाँ १९३९ से ४५ तक के युद्ध काल में पुनः इसकी वृद्धि का भी ज्ञान मिलता है । इस रोग में रोगी की त्वचा पीताभ या स्वल्प हरिताभपीत हो जाती है । रक्त रस में वृद्धि होने के कारण रक्त का आयतन पर्याप्त बढ़ जाता है । शोण वर्तुलि प्रचुरता घट जाती है । वह ४०% तक घट सकती है । कभी-कभी वह २०% तक जा पहुंचती है। रक्त के लाउ कर्णो की संख्या विना घटे ही यह परिवर्तन होने के कारण रंगदेशना बहुत कम देखी जाती है। शोण वर्तुलि की कमी के कारण शोण वर्तुल विरहित वलयाकार लालकण ( annular red corpuscles) बहुधा मिलते हैं। वैसे थोड़ी सी उनमें विरूपता तथा असमता भी मिल सकती है । रक्त के वर्ण द्रव्य की कमी के कारण दौर्बल्य, परिश्रम पर श्वास की वृद्धि तथा हृद्गति वैषम्य आदि लक्षण ( cardiac arrhthmia ) पाये जाते हैं । हृदय की धुकधुकी भी बढ़ जाती है । इस रोग में विबन्ध ( constipation ) मिलता है जिसके साथ परम नीरोदता ( hyperchlorhydria ) पाई जा सकती है जो आगे आमाशयिक व्रण में परिणत हो सकती है । यह रोग साध्य है । सिराजन्य घनास्रोत्कर्ष होने के कारण ही मृत्यु हो सकती है। औदरिक रोग (Coeliac disease ), अनशन और मिक्सीडिमा में भी लोहा भावी रक्तक्षय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । ( २ ) अस्थिमज्जकीय क्रिया का अवसाद (Depression of Bone-Marrow Activity) अनघटित या अनभिघट्य रक्तक्षय ( Aplatic Anaemia ) अस्थिमज्जा की पुष्टि ( aplasia ) के साथ यह रक्तक्षय बहुधा देखने में आता है ऐसा विद्वानों का मत रहा है । पर रहोड्स, मिलर, थौम्पसन तथा अन्यों के मत में अपुष्टि न होकर परमपुष्टि या परमचय के कारण यह रक्तक्षय उत्पन्न होता है । १३ रुग्णों में अपुष्टि या अचय ( aplasia ) के कारण थोम्पसन को केवल १ ही रोगी मिला । अचय या अपुष्टि के अतिरिक्त आरम्भिक अविभिनित अवस्था में प्रगल्भन का अभाव ( failure of maturation at an early undifferentiated For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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