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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभय-रत्नसार । ७४५ इनके द्वारा हम बहुतसे जीवोंको हिंसासे बच सकते हैं। जनशासनका यही उपदेश है, कि वही पुरुष धन्य है, महान है पुण्यवान् है, तेजवान है, सुखी है, भाग्यशाली है, जोकि जीवदया का भली भाँति पालन करता है। अब संक्षेपमें यह समझ लीजिये कि कैसे बर्तनमें और किस प्रकार भोजन करना चाहिये। जो दोष रात्रि भोजनमें है, वही अंधेरेमें भोजन करने में भी है। ठीक वैसा ही दोष छोटे मुहवाले लोटे आदिमें पानी पीने में भी है, जिसके भीतर नजर न पहुच सके। ___ काँसा या कलईवाले ताम्बे पीतलके बर्तन काममें लाने चाहिये। टोनपर कलई किये हुए बर्तन तो कभी किसी जैन या हिन्दूको व्यवहारमें नहीं लाना चाहिये। लोहे या टीनके बर्तन त्याज्य हैं। केले आदिके पत्तपर भी भोजन नहीं करना चाहिये। दिनको भी यदि धियाला हो तो नहीं खाना चाहिये । उजेलेमें स्वच्छ वर्त्तनमें, भक्ष्याभक्ष्यका विचार करते हुए स्थिरचित्त हो बिना बोलेचाले भोजन करना चाहिये । खाते-खाते बाते करनेसे ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध होता है । दूसरी ओर ध्यान चले जानेसे भोजनमें मक्खो आदि त्रस जीव पड़ जानेका भय रहता है। अगर कहीं ग्रासके साथ में हमें मक्खो चली गयी तो के हो जाती है। अगर बोलनेकी जरूरत ही पड़ जाये तो पानीसे मुंह शुद्ध करके बोलना चाहिये । सदा देख-भाल कर अच्छा और परिमित भोजन करना चाहिये। दो तीन आदमी एक साथ नहीं खाना चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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