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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभय रत्नसार । ६८५ विषयकी पूरी शिथिलता पड़ गयी है। कई श्रावक भाई तो भक्ष्याभक्ष्य किसे कहते हैं, वह भी ठीक तरह नहीं समझते । कई भाई यदि इस विषय में थोड़ासा कुछ जानते हैं; किन्तु इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण भक्ष्याभक्ष्य को न सोच कर उसे सेवन करते ही रहते हैं । कई सज्जन खूब पढ़े-लिखे हैं, अंग्रेजी बी० ए० और एम० ए० पास किये रहते हैं, उनको इस विषयका ज्ञान भी ठीक रहता हैं; किन्तु फिर भी वे लोग रसनेन्द्रियकी लालसा में पड़ कर अभक्ष्य पदार्थों का सेवन आनन्द - पूर्वक करते ही रहते हैं, यदि उनसे इस विषय में कुछ कहा जाय तो यही उत्तर मिलेगा कि "आलू, बैगन न खानेसे थोड़े ही धर्म या मोक्ष प्राप्त होता है ?" इसी तरह और भो अनेक प्रकारके कुतर्क करने लगते हैं । उस समय यदि उन्हें शास्त्र - प्रमाण देकर ठीक तरह समझाया जाय तो उसे भी वे लोग अङ्गिकार करने को तैयार नहीं होते। और जब अपना पक्ष For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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