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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ विधि - संग्रह | ॥ चौसठ इंद्र करें सदा, तुझ पदपंकज सेव रे त्रिभु० ॥ १॥ प्रथम भूपाल प्रभु तूं थयो, इत्रसरपणी काल रे । तुझ सम अवर न को प्रभु, तूं प्रभु दीनदयाल रे ॥ त्रि० ॥२॥ प्रथम तीर्थंकर तूं सही, केवलज्ञान दिणंद रे । धर्म प्रज्ञापक प्रथम तू, तही है प्रथम जिनंद रे ॥ त्रि० ||३|| अंतर अरि जे आतमतणा, काल अनादि थिति जेह रे । ते तप शक्तियें तें हराया, आत्म वीरज गुण गेह रे ॥ त्रि ० ॥ ४ ॥ ताहरी शक्ति कुण कह सकै, जेहनो अंत न पार रे । द्वादश मासनो तप कर्यो, तेह अपानक सार रे ॥ त्रि० ॥ ५ ॥ एह उत्कृष्ट तप वरणव्यो, अ. गम में जिनराज रे । ते कखं प्रति चाकरु, तप विना किम सरे काज रे ॥ त्रि० ॥६॥ तीनसै साठ उपवास ते, ते इण पंचम काल रे । अवसर आदरे कम बिना, ते पण भवि सुवि शाल रे ॥ त्रि ० ॥ ७॥ ए तप गुरुनु आदरै, शास्त्र तर अनुसार रे । पडिकमणादिक भावयो, शुद्ध क्रिया मन धार रे ॥ त्रि० ॥८॥ चित्त समाधि For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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