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अभय रत्नसार। ३६१ देव, मन माह्य रे ॥ उत्तंग तोरण देहरु रे लाल निरखीजै नित्य मेव ॥म ॥ रा०॥ १॥ चोवीस मंडप चिहुं दिसे रे लाल, चौमुख प्रतिमा च्यार ॥ म० ॥ त्रिभुवन दीपक देहरो रे ला०, समवड नही संसार ॥ म० ॥२॥ रा०॥ देहरी चोरासी दीपती रे लाल, मांडयो अष्टापद मेर॥ म० ॥ भलें जुहारया भोयरा रे लोल, सूतां ऊठ सवेर ॥ म० ॥३॥रा० देस जाणीतू देहरू रे लाल, मोटो देस मेवाड ॥ म०॥ लक्ख नवाणं लगाविया रे लाल, घन धन्नो पोरवाड ॥ म०॥ ४॥रा. खरतर वसई खंतसू रे लाल, निर खंता सुख थान ॥ म० ॥ पांच प्रासाद बीजा वली रे लाल, जोतां पातिक जाय ॥ म०॥५॥ रा०॥ आज कृतारथ हुं थयो रे लाल, आज थयो आणंद ॥ म०॥ यात्रा करी जिनवरतणी रे लाल, दूर गयं दुख दंद॥म०॥६॥रा०॥ संवत सोल छियंतरे रे लाल, मिगसिर मास म
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