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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६६ स्तवन- संग्रह | ते धारणा, चार प्रकारना, धुरथकी नांमनें अरथ किाही कारण वसै पाप जे कीजिये, प्रथम ते नांम संकप कहीजिये ॥ ३ ॥ कीजीये जेह कंद प्रमुख करी, दोष तेवीय परमाद संज्ञा धरी ॥ कूदतां गर्वतां होय हिंसा जिहां, दर्प इण नांम करि दोष तीजो तिहां ॥ ४ ॥ विरासतां जीव जीवनेगिनर करे जिको, चोथौ आकुट्टिया दोष ऊपजै तिको ॥ अनुक्रमें च्यार ए अधिक एक एकथी, दोष धर प्रायच्छित्त लेह विवेकथी ॥५॥ || ढाल २ ॥ अन्य दिवस कोई मागध आयो पुरंदर पास || पाटी पोथी कवली नवकरवाली जोय, ग्यानना उपगरणतणी आसातन कीधी होय ॥ जघ न्यथी पुरमढ्ढ एकासगो आंबिल उपवास, अनुक्रम एह आलोय सुगुरु बताई तास ॥ ६ ॥ ए जो खंडित थायै अथवा किहांई गमाय ॥ तो वलि नवा कराया दोष सहू मिट जाय ॥ थापना अणपड़िलेह्यां पुरिमढनो तप धार, गिरतां एका For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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