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अभय रत्नसार। ३५७
। ढाल ४ ॥ कुमरपदै प्रभु रहतां काल सुखै गमै ए, आयो मन वैराग संजम लेवा समै ए॥ तब लोकांतिक देव जणावै अवसरू ए, देइ संवच्छरी दान याचक जन सुखकरू ए॥ २०॥ स्वामी संजम लेय इन्द्रादिक सब मिल्या ए, देस विदेस विहार करी कर्म निरदल्या ए, पांमीय केवलज्ञान सुर महिमा करी ए, थापीय चौविह संघ मुगति रमणी वरी ए ॥ २१॥
॥ ढाल ५॥ इम श्री गौडीपासतणा गुण जे नर गावे, ते नर नारी इह परलोग सुवंछित पावै ॥ संघ करी संघपति जिके गवडीपुर जाव, चोर धाड संकट टले विधन बुराइ न आवै ॥ २२॥ धरणराय पउमावइ जास वहे सिर आंण, आंमल वरण सुसोभित नव कर काय प्रमाण ॥ कल्पवृक्ष चिंतामणि कामगवी सम तोल, श्री गुणशेखर सीस समयरंग इण पर बोले ॥ २३ ॥
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