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श्रीगोडीपार्श्वजिन-वृद्धस्तवनं। १३५ मान्यो ते वैण, हेम वरण देखाड्यो नैंण । गोठी मनह मनोरथ हुआ, सिलावटने गया तेडवा ॥ ३३ ॥ सिलावटो आवै सूरमो, जिमें खीर खाँड घृत चामो। घडै घाट करैं कोरणी, लगन भले पाया रोपणी ॥३४॥ थंभ २ कीधी पूतली, नाटक कौतुक करती रली। रङ्ग मंडप रलियामणों रसै, जोतां मानवनो मन बसै ॥ ३५ ॥ नोपायो पूरो प्रासाद, स्वर्ग समो मांडे आवास । दिवप्त विचारी इंडो घड्यो ततखिण देवल ऊपर चढ्यो ॥३६॥ शुभ लगन शुभ वेला वास, पव्वासण बेटा श्रीपास । महिमा मोटी मेरु समान, एकल मिल वगडे रहैवान ॥३७ ॥ वात पुराणी मैं सांभली, तवन मांहि सूधी सांकली। गोठी तणा गोतरिया अछ, यात्रा करीने परने पछे ॥ ३८ ॥ (दोहा)॥ विघन विडारन यक्ष जगि, तेहनो अकल सरूप । प्रीत करे श्रीसङ्घने, देखाडै निज रूप
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