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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org L ८ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्वास, थँक आदिसे ज्ञानकी अत्यन्त आशासना होती है, इसलिये हर एक पाठकको चाहिये कि बिना मुखपर मुहपत्ती या वस्त्र रखे किसी पुस्तकको न पढ़े । एक समय गौतम स्वामीने शासन नायक वीर प्रभुसे यह प्रश्न किया कि, इन्द्र सावद्य भाषा बोलते हैं या निरवद्य ? इसपर भगवान्ने कहा कि मुखके आगे वस्त्र आदि रखकर बोलनेसे निरवद्य भाषा होती है । अन्यथा वह सावद्य समझनी चाहिये । अतएव अष्ट प्रवचन माताके रक्षक यति-मुनियों को भी आलस्य त्यागकर मुँहपत्ती ( जोकि आजकल नाम - मात्र हो गयी है) के सदुपयोग रखनेका ख़याल रखना अत्यन्त आवश्यक है । इससे समीपवर्ती श्रावक-श्राविकाओंको भी मुंहपत्ती के सम्बन्ध में सदुपयोग रखनेका पूरा उपदेश मिलता है ।" मार्ग में चलते समय ज्ञानको नाभीके ऊपर और मस्तक के नीचे रखना चाहिये। जिस तरह राजा, सेठ साहूकार के आनेके समय उनका बहुमान किया जाता है । उसी तरह ज्ञानका भी चन्दन, पूजन करके बहुमान करना चाहिये । यदि ज्ञानावरणीय कर्मीका शीघ्र ही क्षय करना हो तो आपके द्वारा ज्ञानकी किसी तरह आशातना न हो वैसा निरन्तर शुद्ध उपयोग रखनेका प्रयत्न कीजिये । ज्ञाना वरणीय कर्मों के नाश होनेसे लोकालोक प्रकाशक उत्तम केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है । निवेदक सम्पादक । For Private And Personal Use Only
SR No.020001
Book TitleAbhayratnasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain
PublisherDanmal Shankardas Nahta
Publication Year1898
Total Pages788
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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