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________________ 36 Jaina Literature and Philnsophy 1668 Begins -fol. 10 ए९० ॥ सकलगणिशिरोमणि ॥ श्री ५ श्रीऋद्धिविमलगणि २गुरुभ्यो नमः ॥ राग गोडी ॥ ऋषभ अजित संभव जिनो ॥ अभिनंदन सुमतीशो॥ पदमप्रभ सुपामो भरह जिनो ॥ चंद्रप्रभ सुविधीसो॥१॥ तूटक॥ वंदिइ सीतल जिन सिअसो वासुपूज्य जिणंद रे॥ नमो विमल अनंत धम्मों सांतिनाथ मुणिंद रे॥ कुंथु पर जिन मलि ॥ सुव्रत नमो श्रीनमि नेभि रे ।। पास जिनवर वीर जगगुरु ।। विविध धुरि समोभि रे॥२॥ etc. -fol. 2a समरीय मनि उल्हास वासुपूज्य जिनवर तणो॥ भणत्युं पुण्यप्रकाश ॥ ८॥ Ends-fol. 34b श्रीमदानंदविमलेंदु गुरुवंदीइं ॥ पाटि तस श्रीविजयदानसूरो॥ तास पटि प्रसनो कृपलो वंदिइं ॥ हरिविजय सुगुणपूरो ॥१॥ श्रीमसकलमुनि सुकयरो ॥ सकल संयमधरी ॥ दिनकरो श्री'तपा' गच्छ केरो ॥ हीरविजय गुरुराजथी। प्रा(मा)ज जगि कोपि अधिको न दीसह अनेरो। श्री। श्रीवासुपुज्यपुण्यप्रकाशो वसु श्रवण हृदयांबुजे जाव सूरो ॥ सकलमुनि चिंतिओ श्रीसंघसंतिओ ॥ निर्मलो सुरभिजिम जगि कपूरो ॥३॥ श्री. नगरी 'बावती' जेणे बहु धनवती॥ जयति जिहां थंभणो पासनाहो सतत धरणेद्र पद्मावती पूजितो ॥ सकलसिरि संखमुख विजलींहो ॥ ४॥ इति श्रीवासुपूज्यजिनप्रकाश संपूर्ण ॥ संवत् सत्तर अधिक उत्तर सतावंन (१७५७ )तांमे कंझो। मास माधव असित पक्षे छठिं गुरुवारे लह्यो। नगर पा 'पाटण' धर्ममांडण अंबादत्ते लिख्यो वली॥ ए रास ग्गो जिना ध्याओ पाप सवि जाये बली ॥१॥ For additional works see Vol. XIX (ii) 2 pp. 233-34. 1. This verse is composed by scribe.
SR No.018104
Book TitleDescriptive Catalogue Of Manuscripts Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Rasikdas Kapadia
PublisherBhandarkar Oriental Research Institute
Publication Year1987
Total Pages332
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size18 MB
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