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________________ 226 Jaina Literature and Philosophy [826 Begins — fol. 10 ॥ ॐ ॥ श्रीजिनाय नमः।। दूहा ।। प्रणमुं परम पुनीत नर । वरधमान जिनदेव । लोकालोकप्रकास तस। करै समकिती सेव ॥ १॥ तस गनधर गोतम प्रमुष । धरमवंत धनपात । तिन सेवई भविजन सदा । विलै मोहतमराति ॥ २॥ चौपाई॥ कविबालक यह कौनौं ख्याल । हसौ मती बुधिवंत विसाल । रामजानकी गुन विसंतर। कहै कौंन कविवचनविचार ॥ ३ ॥ देव धरम गुरुकौं सिरनाइ । कहै चंदछत्तम जग माइ। परउपगारी परम पवित्त । सज्जनभावभगतिकै चित्त ॥ ४॥ समकरि आदि अंत अध्यरा । असति आदि अष्यर करि परा। ए समरुं परग्यादातार । सीतचरित चितकरहु(?) उदार ॥ ५ ॥etc. Ends - fol. 110a संवत सतरै तेरोतरै( १७१३) । मगसिर ग्रंथ समापति करै। सुकल पक्ष तिथि है पंचमी । भापौ जाण कुमति जिण धमी ॥ १८ ॥ जिणि अपनी निज रिधि पहचाणी । सो चिनमूरति आतमग्यांनी। प्रगटयो सहज सुधारस होई । घारसमै वारस नहि कोई ॥ १९ ॥ कथा सुणी श्रवणे अवधार । रही याद सों लिषी विचार । भूल चूकया मैं जो भई । और वनाइ नई कधु कई ॥२०॥ सोमत विहरौ तुम बुधिवंत । कह्यौ वहुत विघटै जु सिधंत । इन सव पसरधीमत करी । वाणीकस हिरदामै धरौ ॥ २१॥ उत्तम पुरुष तणी ए वान । भयमुकति न जिसव परजात । जो सब राग दोष पर हरै । मुकतिवधूकुं वह नर वरै ॥ २२ ॥ राग दोष त्यागै जो जीव । अविनासी सुष लहै सदीव । ता सुष कौकबहूं नही अंत । ध्यानमांति देण्यौ भगवंत ॥२३॥ जिण भाष्या निजाणी मांहि । सहजै राग दोष कछु नाहि । सुणै गुणै चित जो राम माघ । थिति पूगाविन नाहि उषा(?)व ॥२४॥ कालिषेत उदिमभवभाव । हरै नही करि कोटि उपाव।। एपां चौ समवाइ सठीक । कारिज होइ लोह डैलीक ॥ २५॥ इति श्रीसीताचरित्र संपूर्ण ॥ संवत् १७९० वर्षे अर्कवासवाद( ? )लिषतं लालचंदजीति श्रीरस्तु श्री।
SR No.018104
Book TitleDescriptive Catalogue Of Manuscripts Vol 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Rasikdas Kapadia
PublisherBhandarkar Oriental Research Institute
Publication Year1987
Total Pages332
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size18 MB
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