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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२७ २३७ १२१८७१. शत्रुजयतीर्थ स्तवन, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, जैदे., (२५४१३, ५४२६)... शत्रुजयतीर्थ स्तवन, आ. जिनभक्तिसूरि, पुहि., पद्य, आदि: सुण सुण शेज; अंति: (-), (अपूर्ण, पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., गाथा-२ तक लिखा है.) १२१८७२ (#) कल्पसूत्र सह बालावबोध-वाचना-२, अपूर्ण, वि. २०वी, जीर्ण, पृ. २-१(१)=१, प्र.वि. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षर पत्रों पर आमने-सामने छप गए हैं, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, दे., (२४.५४१२.५, ९४२३). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण, पृ.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., व्याख्यान-२ अपूर्ण से है.) कल्पसूत्र-बालावबोध , मा.गु.,रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण, पृ.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., वाचना-२ अपूर्ण से है.) १२१८७३. (+) औपदेशिक पद संग्रह, संपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. १, कुल पे.७, प्रवि. पत्रांक नहीं लिखा है., टिप्पण युक्त विशेष पाठ., दे., (२६.५४१३.५, १९४३९). १.पे. नाम, औपदेशिक पद-व्रतपालन, पृ. १अ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-व्रतपालन, पुहिं., पद्य, आदि: व्रत है सुखकारी पालो; अंति: हो जावे या है श्रीजिनवाण, गाथा-५. २. पे. नाम. औपदेशिक पद-हितशिक्षा, पृ. १अ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-हितशिक्षा, पुहिं., पद्य, आदि: मिटे नही थोर पुद्गल केरी; अंति: चाह हुए तो तज दे एह कुचाह, गाथा-५. ३. पे. नाम, औपदेशिक पद-ब्रह्मचर्यव्रत, पृ. १अ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-ब्रह्मचर्यव्रतविषे, पुहि., पद्य, आदि: ब्रह्मव्रत सुखकारी पालो; अंति: अवसर दिव्य अपार, गाथा-५. ४. पे. नाम, औपदेशिक पद-व्रतपालन, पृ. १अ-१आ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-व्रतपालन, पुहिं., पद्य, आदि: नियम व्रतने धारो हर्षसुं; अंति: तो होवे कल्याणो जी, गाथा-५. ५. पे. नाम. औपदेशिक पद-पापनिवारण, पृ. १आ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-पापनिवारण, पुहिं., पद्य, आदि: पाप है दुःखकारी देखो; अंति: बतावे होवे परम कल्याण, गाथा-३. ६.पे. नाम. औपदेशिक पद-अनर्थदंड विरमण, पृ. १आ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-अनर्थदंड विरमण, पुहिं., पद्य, आदि: सगुण नर तजो अनर्थादंड; अंति: जी त्याग प्रत्ये सनेह, गाथा-४. ७. पे. नाम, औपदेशिक पद-वैयावच्च, पृ. १आ, संपूर्ण. औपदेशिक सज्झाय-वैयावच्च, पुहि., पद्य, आदि: मुनिसेवा सुखदाई सेवा किया; अंति: सबजन लेवो लाभ सदाई रे, गाथा-५. १२१८७४. (#) पोसहलेवण विधि, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १, प्र.वि. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४१३.५, १३४२९). पौषध विधि, संबद्ध, प्रा.,मा.गु., गद्य, आदि: प्रथम उपाश्रय आवी स्थापना; अंति: (-), (अपूर्ण, पृ.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., पडिलेहण विधि अपूर्ण तक लिखा है.) १२१८७६. (+) जीवधडो मोटो, अपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. ४-१(२)=३, पृ.वि. बीच व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. हुंडी:जीवधडो., संशोधित., दे., (२५४१३, २१४४४-५१). ५६३ जीव बोल थोकडा, मा.गु., गद्य, आदि: १ निश्चय एकावतारी मनजोगी; अंति: (-), (पू.वि. जीवभेद-१९ अपूर्ण से ४५ अपूर्ण तक व जीवभेद-१०२ से नहीं हैं.) १२१८७७. (#) नंदीसूत्र, संपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. २१, प्र.वि. हुंडी:नंदीसूत्रं०., मूल पाठ का अंश खंडित है, जैदे., (२५४१३, १६x४३). For Private and Personal Use Only
SR No.018084
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2019
Total Pages624
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size19 MB
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