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________________ 526 Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur. (Jaipur-Collection) CLOSING: COLOPHON: Post-colophon : Jain Education International छिन्द्याः सहसा पदैस्त्रिभिरधं ज्योतिर्मयी वाड्.मयी ॥१॥ अर्थ - एहवी त्रिपुरादेवी ए क्लीं सौं एणि पदि करी, अथवा ललाट हृदय शिरो त्रिहुं थानिके करी हमारा पाप छेदो टालो । हवइ ए परमेश्वरी केहवी छ ? योतिर्मयी तेजमयी, एतलइ क्लीं एवं बीज जाणिवु । वली केहवइ छ ? वाग्मयी वाणी छइ, शास्त्र मय छइ, एतलइ ए बोजागम जाणिवु । एतलइ अलोम विलोम कहूं- ऐं क्लीं स्ह क्लीं ए त्रिपुरसुन्दरीनो मन्त्र कहूं । हवइ सामान्य थिको मन्त्रोद्धार कहूँ । श्लोक - सावद्य निरवद्यमस्तु यदिवा किंवा न या चिन्तया, अर्थ- हे भगवति ! ताहरू ए स्तोत्र सावथ होइ अथवां निरवद्य होइ, शुद्ध भरिण अथवा अशुद्धि भरिण, तथा बीजा अनुलोम प्रतिलोम भरिण, प्रथवा च्यंत (चित्त) शूनि धरी भरिण । नूनं स्तोत्रमिदं पठिष्यति जनो यस्यास्ति भक्तिस्त्वयि । हे भगवति ! ताहरु ए स्तोत्र येह भरणइ, ताहरइ विषइ दृढ विश्वास आरिण, तेह पुरुषमि सर्व सिद्ध होइ । संचिन्त्यापि लघुत्वमात्मनि दृढं संजायमानं हठात् अर्थ- हे भगवते ! श्रात्म आपोपानि विषइ मन दृढ निश्चल लघुत्व शीघ्रत्व तेहनि चीन्तवीनड भक्ति करि श्लोक त्वद्भक्त्या मुखरीकृतेन रचितं यस्मान्मयापि ध्रुवम् ॥ हे भगवति ! ताहरी जे भगति तेरणी भक्ति करीनि वांणी निर्मल छइ, ध्रुव नश्चि ए स्तोत्र भरिण ताहरी भक्ति करी ते पुरुष धर्म अर्थ काम मोक्ष पद पामइ । इति लघुपण्डितविरचितां त्रिपुराभारतीस्तोत्र सम्पूर्ण: । चला जइराज चेला देवजी लखतं सही । शुभम्भवतु । २१ काव्य । झझवाड नगरे । इति टीका लघुस्तवनी समाप्ता चेला जीवराजनी प्रतइ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018050
Book TitleSanskrit and Prakrit Manuscripts Jaipur Collection Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Jamunalal Baldwa
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1984
Total Pages634
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationCatalogue
File Size20 MB
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