SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 597
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 512 Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur. (Jaipur-Collection) जहां की सैली देखि के, हिय मैं हर्ष न माय । षट्मन्दिर जिनराज के, वष उद्योत लखाय ॥७॥ ग्रन्थ सूक्तमुक्तावली, देखि हियो उमगाय । करौं वचनिका तास की, बालबोध सुखदाय ॥८॥ ता पीछे पण्डित सही. धनजीमल इहां प्राय । तिनने बहु प्रेरन करी, करो वचनिका जाहि ॥९॥ तब हमने भाषा करी, अलप बुद्धि हम जांनि । पण्डित मति हसियो मुझे, मो परि प्रीति सुठांनि ॥१०॥ ॥ सवैया ३१॥ सुखद अनूप ग्रन्थ सूक्तमुक्तावली पन्थ, जामैं है सुतंत्र ऐसो भाषा निरभयो है। दरशन शुद्ध होत दूरि दुरबुद्धि होत बुद्धि रिद्धि वृद्धि होत........। ..................... ........ ...... भ्रमत मत जाहि बालक हु बोध पाई, पद आप वर्ण लाय कर्ता काडि लयो हैं ॥ ११ ॥ रस युग सराग ससि (१८३६) संवत सुमास वर, जेठि कृष्ण दोजि वार सुरगुरु मानिये। दिवस सुयाम दोय गये ग्रंथ पूरो होय, ताही को अभ्यास करै सामि जांनिये। धर्म ही त ऋद्धि होतं वृद्धि होय धर्म ही ते, धर्म ही ते सिद्धि होय पाही चित्त ठानिये। पढो पढ़ावो याहि सूनो सुनावो याहि, लिखो लिखावो याहि धरम भाव प्रानिये ॥ १२ ॥ ॥ दोहा । भई वचनिका ग्रन्थ की, पूरी सरस नवीन । वक्ता श्रोता सुख लहो, पढत सुनत चित दीन ।।१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018050
Book TitleSanskrit and Prakrit Manuscripts Jaipur Collection Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Jamunalal Baldwa
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1984
Total Pages634
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationCatalogue
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy