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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir का अंतिम पुष्टिकरण भी बाकी है; ऐसे अनेक कारणों से कुछ एक प्रकाशित कृतियाँ भी सम्भवतया अप्रकाशित के रूप में यहाँ आ गई हैं. खासकर लघुकृतियों के विषय में यह सम्भावना अधिक है. अतः, कृपया इसे मात्र एक संकेत के ही रूप में देखा जाय. १४. इन परिशिष्टों हेतु यद्यपि कृति-एकीकरण का शक्य प्रयत्न किया गया है, तथापि यह सम्भव है कि एक ही कृति भिन्न-भिन्न नामों से एकाधिक जगहों पर भिन्न-भिन्न प्रतों के साथ मिल सकती है. इस कार्य में सांगोपांगता तो भविष्य में सुसंपादित होकर प्रकाशित होनेवाले-कृति पर से प्रत माहिती वाले खंडों के प्रकाशन के समय ही आ सकेगी. यह एक सतत जारी रहनेवाली प्रक्रिया है. अतः पूर्व पूर्व खंडों की तुलना में उत्तर उत्तर खंडों में इन सूचनाओं में फर्क देखने को मिल सकता है. १५. क्वचित् ऐसा भी हुआ है कि एक ही कृति के लिए भिन्न-भिन्न प्रतों में भिन्न-भिन्न कर्ताओं के नाम मिले हैं. कृति का प्रायः सब कुछ एक समान होते हुए भी, मात्र रचना प्रशस्ति में अन्तर मिलता है. ऐसी स्थिति में सामान्यतः प्रत्येक कर्ता के अनुसार, उस कृति की एकाधिक स्वतंत्र प्रविष्टियाँ दी गई हैं. १६. इसी प्रकार, कृतियों के सामान्य या विशेष फर्क के साथ एकाधिक आदिवाक्य भी मिलते हैं. उन सब की प्रविष्टि कम्प्यूटर पर तो कर दी जाती है; परंतु इनमें से यहाँ मात्र एक ही आदिवाक्य दिया गया है. जबकि, सूचीपत्र में तो तत्-तत् प्रतगत प्रथम स्तर व क्वचित् कृति के ज्यादा सही निर्धारण हेतु, मंगल आदि के बाद के द्वितीय स्तर के आदिवाक्य भी दिए गए हैं; जो कि, सम्भवतः यहाँ दिए गए आदिवाक्य से मेल न भी खाते हों; ऐसा ज्यादातर, टबार्थ व बालावबोधों में पाया गया है. १७. कृति के आदिवाक्य के पहले दिए गए कृति का धार्मिक स्रोत चिह्नित करने हेतु मूपू., स्था., ते., श्वे., दि., जै., वै., बौ., मु. इन संकेतों का प्रयोग क्रमशः जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी, जैन श्वेतांबर, जैन दिगंबर, जैन, वैदिक, बौद्ध व मुस्लिम के लिए किया गया है. जहाँ पर ये संकेत नहीं हैं; वे सामान्य कृतियाँ हैं. इन संकेतों को यथोपलब्ध सूचनाओं के आधार पर दिया गया है। फिर भी इनकी कहीं-कहीं अंतिम रूप से पुष्टि होनी बाकी है. कहीं पर धर्मस्रोत की निःशंक परिपुष्टि न हो, पाई हो तो उन धर्म संकेतों के साथ प्रश्नार्थ चिह्न दिया गया है. यथा - बौ?, जै?. यहाँ एक स्पष्टता जरूरी है कि उपरोक्त धर्म संकेत पूर्णतः धार्मिक कृति हेतु ही न होकर कृति किस धर्मक्षेत्र से है, यह दर्शाने हेतु भी है. व्याकरण, ज्योतिष आदि विषयों की कृतियों हेतु यह बात विशेष तौर पर लागू होती है. १८.एक ही कृति हेतु भिन्न-भिन्न हस्तप्रतों में सामान्य फर्क के साथ न्यूनाधिक गाथा आदि परिमाण भी मिलता है. अतः कृति का यहां दिया गया अध्याय, गाथा, ग्रंथाग्रंथ आदि परिमाण सूचीपत्र में हस्तप्रत के साथ की कृति के परिमाण से भिन्न हो सकता है. १९. वाचकों की सुविधा एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए कृति के साथ दिए हुए प्रत क्रमांक, क्रमशः प्रत की शुद्धि आदि महत्ता, संपूर्णता, दशा, अपूर्णता व अशुद्धि की वरीयता से दिए गए हैं. शुद्धता सूचक निशानी (+) वाले प्रत क्रमांकों को सर्वाधिक महत्व दिया गया है, उसके बाद संपूर्ण, पूर्ण व प्रतिपूर्ण प्रत-क्रमांकों को तथा अंत में (+) (#) (-) निशानी वाले प्रत क्रमांकों को रखा गया है. अतः प्रत क्रमांक अपने स्वाभाविक अनुक्रम से नहीं मिलेंगे. २०. प्रत में प्रस्तुत कृति यदि प्रतिपूर्ण है अर्थात् - प्रतिलेखक ने कृति को संपूर्ण न लिखकर, प्रति में उपलब्ध अंश मात्र को ही लिखा है; ऐसे में प्रत क्रमांक टेढ़े Italic अंकों में दिखाए गए हैं. यथा-५८१६. २१. कृति माहिती के सामने प्रत क्रमांक के साथ साथ यदि प्रत में एकाधिक पेटा कृतियाँ हैं, तो प्रस्तुत कृति प्रत में किस क्रमांक की पेटाकृति है - वह पेटांक भी दिया गया है. यथा - प्रत क्रमांक १०२०७ के तीसरे पेटांक में महावीरजिनस्तवन है. अतः, इसका क्रमांक इस प्रकार लिखा गया है - १०२०७-३. भूल सुधार : खंड ४ व ५ में प्रतक्रमांक के बाद यह पेटाकृति क्रमांक तकनीकी कारणों से कहीं कहीं गलत छप गया है. यद्यपि पत्रक्रमांक तो सही है. ४७७ For Private And Personal Use Only
SR No.018029
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2008
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size8 MB
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