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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir वाली अनेक कृतियों के समूह में कृति को ढूंढने में उपयोगी सिद्ध होगा. • कृति को उसके पर्यायवाची नामों से भी खोजें. यथा- नमस्कार हेतु नवकार, पंचपरमेष्ठि; नवपद हेतु सिद्धचक्र आदि. • सामान्य पद, सज्झाय, लघुकाव्यों आदि को औपदेशिक एवं आध्यात्मिक इन नामों से अभिहित कर बाद में विषयानुसार नामाभिधान करने का प्रयत्न किया गया है. • कृति नाम में यदि कोई संख्यावाचक शब्द है, तो एकरूपता लाने के लिए वह संख्या यथासम्भव अंकों में ही लिखी गई हैं. इससे अष्टकर्म व आठकर्म की जगह ८ कर्म लिखा होने से वे अलग-अलग न मिलकर एक ही जगह मिलेंगे. जहाँ तक हो सका है, संख्याओं को नाम के प्रारम्भ में ही ले लिया गया है. • प्रत व पेटाकृति नाम के रूप में कृति के प्रतिलेखक द्वारा प्रत में उल्लिखित नाम को ही रखकर कृति नाम के रूप में कृति का यथार्थ व बहुमान्य नाम रखने का नियम अपनाया गया है. इस वजह से प्रत, पेटाकृति नाम व उसके नीचे आने वाली कृति नाम में उल्लेखनीय भिन्नता मिल सकती है. इससे एक ही कृति के अनेकविध प्रचलित नामों का भी पता चल जाता है. यथाप्रत नाम - बारसासूत्र या पज्जोसणा कप्पो या दशाश्रुतस्कंध अष्टम अध्ययन. कृति नाम - कल्पसूत्र • जिन कृतियों के अंत में प्रत क्रमांक की जगह <प्रतहीन> ऐसा लिखा हो, वहाँ यह समझना होगा कि प्रस्तुत कृति मात्र उसके नीचे दिए गये पुत्रादि कृति का संबंध बताने हेतु है. कृति नामों में विशेषण अंत में दिए गए हैं ताकि मूल नामों में एकरूपता बनी रहे और अकारादि क्रम में एक साथ आएँ. यथा- २४ अनागत जिन स्तवन के स्थान पर २४ जिन स्तवन-अनागत लिखा गया है. इसी तरह शंखेश्वरमंडन पार्श्वजिन स्तवन की जगह पार्श्वजिन स्तवन-शंखेश्वरमंडन दिया गया है. • प्रत की अपूर्णता आदि कारणों से जिन कृतियों के आदिवाक्य नहीं मिल सके हैं, वहाँ आदिवाक्य में (-) ऐसा दिया गया है. • गाथा आदि छोटे परिमाणवाली मारूगुर्जर भाषा की कृतियों में क्वचित् वास्तव में राजस्थानी, गुजराती तथा प्राचीन हिन्दी भाषा होने की संभावना हो सकती है. कई बार कालांतर व क्षेत्रांतर की वजह से 'गुजराती, राजस्थानी' आदि देशी भाषा की एक ही कृति की भाषा के स्वरूपों में विभिन्न प्रतों में इतना परिवर्तन मिलता है कि यथार्थ भाषा का निर्धारण दुरुह हो जाता है. ऐसे में सुविधा की दृष्टि से उस कृति की भाषा के रूप में पश्चिमोत्तर भारत की प्राचीन भाषा 'मारुगूर्जर' लिखने का नियम रखा है. • संभावित अप्रकाशित कृतियों का नाम (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की कम्प्यूटर आधारित सूचना प्रणाली में अब तक उपलब्ध माहिती के अनुसार) italics में मुद्रित किया गया है. यथा-अजितशांति स्तव-बोधदीपिका टीका. चूंकि अनेक प्रकाशनों की विस्तृत सूचना अभी भी कम्प्यूटर में प्रविष्ट करनी बाकी है एवं बहुत-सी प्रविष्ट कृतिगत सूचनाओं का अंतिम पुष्टिकरण भी बाकी है - इत्यादि अनेक कारणों से कुछ एक प्रकाशित कृतियाँ भी सम्भवतया अप्रकाशित के रूप में यहाँ आ गई हैं. खासकर लघु कृतियों हेतु यह सम्भावना अधिक है. अतः कृपया इसे एक संकेत मात्र के ही रूप में देखा जाय. • इन परिशिष्टों हेतु यद्यपि कृति-एकीकरण का शक्य प्रयत्न किया गया है, तथापि यह सम्भव है कि एक ही कृति भिन्न-भिन्न नामों से एकाधिक जगहों पर भिन्न-भिन्न प्रतों के साथ मिल सकती है. इस कार्य में सांगोपांगता तो भविष्य में सुसंपादित होकर प्रकाशित होनेवाले-कृति पर से प्रत माहिती वाले खंडों के प्रकाशन के समय ही आ सकेगी. क्वचित् ऐसा भी प्राप्त हुआ है कि एक ही कृति के लिए भिन्न-भिन्न कर्ताओं के नाम मिले हैं. कृति का प्रायः सब कुछ एक समान होते हुए भी मात्र रचना प्रशस्ति में अन्तर मिलता है. ऐसी स्थिति में सामान्यतः प्रत्येक कर्ता के अनुसार उस कृति की एकाधिक स्वतंत्र प्रविष्टियाँ दी गई हैं. • अनेक कृतियों के एकाधिक प्रचलितनाम भी मिलते हैं, इनमें से यहाँ पर सूचीपत्र का कद बढ़ने के भय से मात्र एक मुख्य नाम ही दिया गया है. यथा- बारसासूत्र आदि के लिए कल्पसूत्र ही दिया गया है. • इसी प्रकार कृतियों के सामान्य या विशेष फर्क के साथ एकाधिक आदिवाक्य भी मिलते हैं. उन सब की प्रविष्टि कम्प्यूटर ४७६ For Private And Personal Use Only
SR No.018028
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2006
Total Pages611
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size7 MB
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