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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir १०. पूर्णता : प्रतगत कृति की पूर्णता यदि प्रत की पूर्णता से भिन्न हो तो उसका उल्लेख यहाँ किया गया है, अन्यथा प्रत की पूर्णता ही कृति की पूर्णता समझी जानी चाहिए. ११. कति का आदिवाक्य : विविध प्रतों में एक ही कृति के थोड़े फेरबदल पूर्वक या बिल्कुल ही भिन्न विविध आदिवाक्य पाए जाते हैं. कभी मंगलाचरण होता है तो कभी नहीं होता. कल्पसूत्र में ज्यादातर प्रतियों में 'नमो अरिहंताणं' से पाठ प्रारंभ होता है परंतु कुछ एक प्रतों में सीधे 'तेणं कालेणं' से भी पाठ प्रारंभ होता पाया गया है. टबार्थ आदि में कभी मंगलाचरण भिन्न-भिन्न होते हैं परंतु शेष पाठ समान होता है तो कभी इससे विपरीत होता है. यही बात अंतिमवाक्य के लिए भी अपनी तरह से लागू होती है. इन सभी विविध आदि/अंतिम वाक्यों को कृति माहिती के साथ संकलित कर लिया जाता है और उस संग्रह में से प्रत में उपलब्ध एक या दो आदि वाक्यों को यथावश्यक यहाँ दिया गया है ताकि यह पता चल सकें कि हकीकत में प्रत में आदिवाक्य किस तरह से हैं. इस सूची में आदि/अंतिम वाक्यों के १५ से २० अक्षरों तक का भाग दिया गया है. विस्तृत रूप से आदि/अंतिमवाक्य २. कृति विभाग की सूची में देने का आयोजन है. १२. कृति का अंतिमवाक्य : कृति जहाँ पर पूर्ण होती है उन शब्दसमूहों को अंतिमवाक्य के रूप में आदिवाक्य की ही तरह लिया गया है. ० उपर्युक्त मुद्दों में १ से १२ तक के सभी मुद्दे प्रत में यदि पेटांक हो और वे पेटांक अपने स्वतंत्र नाम सहित हो तब दिए गए हैं. ० प्रत में पेटांक रहित कृतिवाली प्रतों हेतु ५ से १२ तक के मुद्दे आएँगे. ० बिना स्वतंत्र पेटांक नाम वाले संयोगों में उपरोक्त सूची से निम्नलिखित मुद्दे ही समाविष्ट किए गए हैं - १. पेटांक __ नंबर, ५. कृतिनाम, ६. कर्ता, ७. भाषा, ८. कृति प्रकार, ९. कृति रचना वर्ष, (३. प्रत में पेटा कृति के पृष्ठ, १०. कृति की पूर्णता.) ११. आदिवाक्य, १२. अंतिमवाक्य. पे.वि., प्र.वि., पू.वि. इत्यादि प्रतीक तिरछे दिए गए है. कृति व विद्वान के अपरनाम यद्यपि कम्प्यूटर पर उपलब्ध हैं फिर भी इस सूची में उनकी उपयोगिता अत्यल्प ही होने से व कद की मर्यादा होने से यहाँ नहीं दिए गए हैं. प्रस्तुत सूची पत्र में निम्नलिखित संख्या में सूचनाओं का संग्रह दिया गया हैं. ० अंतिम प्रत क्रमांक - ५५८५ ० इस सूचीपत्र में मात्र जैन कृतियों वाली प्रतों का ही समावेश किया होने से वास्तविक रूप से ३९३३ प्रतों का ही समावेश इस खंड में हुआ हैं. ० समाविष्ट प्रतों में कुल २८०२ कृति परिवारों का समावेश हुआ हैं. ० इन परिवारों की कुल ३९१२ कृतियों का समावेश हुआ हैं. ० उपरोक्त कृतियाँ प्रतों में कुल ८४८५ बार आई हैं. 38 For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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