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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir २. कृति विभाग इस विभाग के तहत कृति को केन्द्र में रखकर उससे संबद्ध अनेकविध सूचनाएँ निम्नोक्त प्रकार से आएगी. २.१ कृति पर से प्रत माहिती : इस सूची में 'कृति परिवार वृक्ष' शैली से कृति की शक्य महत्तम विस्तार पूर्वक सूचनाएँ होंगी. मूल (सर्वोच्च) कृतियाँ परस्पर अकारादि क्रम से होगी व तत्-तत् मूल कृति के नीचे उस पर से लिखी गई कृतियाँ, प्र-कृतियाँ, आदि शाखा/प्रशाखा की शैली से आएगी. इस वर्ग में उपयोगिता एवं सुविधा को ध्यान में रखते हुए समग्र साहित्य जैन, धर्मेतर, वैदिक व अन्य धर्म (२.१.१-२.१.४) इन चार उपवर्गों में विभक्त होगा एवं प्रत्येक वर्ग पुनः भाषा वर्गानुसार निम्नोक्त चार-चार प्रकारों में विभक्त होगा. २.१.१.१ जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश - स्थिर कृतियाँ. २.१.१.२ जैन मारूगुर्जर, गुजराती, राजस्थानी इत्यादि देशी भाषाओं की - स्थिर कृतियाँ. २.१.१.३ जैन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश - फुटकर कृतियाँ. २.१.१.४ जैन मारूगुर्जर आदि देशी भाषा - फुटकर कृतियाँ. २.१.२.१ से ४ धर्मेतर शेष - उपरोक्त चारों प्रकार की कृतियाँ. २.१.३.१ से ४ वैदिक - उपरोक्त चारों प्रकार की कृतियाँ. २.१.४.१ से ४ अन्य धर्म - उपरोक्त चारों प्रकार की कृतियाँ. यहाँ पर 'स्थिर' कृति से जिनकी विधिवत स्वतंत्र रचना हुई हो अथवा किसी कृति का अंश ही होने पर भी जिसकी स्थापना एक स्वतंत्र कृति के रूप में प्रस्थापित हो - यह अर्थ लिया जाएगा. यथा - आगम, प्रकरण, महाकाव्य, स्तवन, स्तुति, टीका, बालावबोध आदि. व्यक्तिगत छुटपुट उद्धरण संग्रह, बोल, थोकडा चर्चा आदि को यथायोग्य 'फुटकर' कृतियों में लिया गया है. _ इस सूची में दो स्तर पर यथोपलब्ध संपूर्ण कृति माहिती एवं लघुत्तम आवश्यक मात्रा में संबद्ध प्रतों की माहिती आएगी. प्रत माहिती स्तर पर प्रत/पेटांकगत कृति के अध्याय, गाथादि एवं ग्रंथान के प्रतगत वैविध्य को एवं प्रतगत आदि/अंतिमवाक्य के वैविध्य को भी निर्दिष्ट किया जाएगा ताकि संबद्ध प्रतों के तुलनात्मक अध्ययन में सुगमता रहे. २.२ आदिवाक्य से कृति माहिती: इस सूची में अकारादिक्रम से आदिवाक्य एवं उनसे जुड़ी कृति की माहिती होगी. आदिवाक्य एवं अंतिमवाक्य की विशेषता है कि हर कृति के लिए ये सर्वथा भिन्न होते हैं. किन्हीं भी दो कृतियों का संपूर्ण पाठ पूर्णतः समान-एक जैसा नहीं हो सकता. इनकी इसी विशेषता के बल से हम किसी भी कृति को निर्णित रूप से ढूँढ़ सकते हैं. अन्य तरीकों से इतना निर्णित ढंग से कृति को ढूँढना कई बार सहज संभव नहीं हो पाता. यथा पार्श्वनाथ भगवान के अज्ञात कर्तृक 'मा.गु.' भाषा में पांच गाथा के अनेक स्तवन मिल जाएँगे. ऐसे में मात्र आदि-अंतिमवाक्य ही प्रत्येक स्तवन को एक दूसरे से भिन्न सिद्ध कर पाएँगे. फिर भी आदि वाक्यों में कुछ एक व्यावहारिक समस्याएँ देखी गई हैं. आगमिक आदि कई कृतियों के आदि/अंतिमवाक्य काफी दूर तक एक समान होते हैं. अतः प्रारंभिक स्तर पर ही भिन्नता लाने के लिए इन्हें यहाँ अनुभवों के आधार पर बनाए गए नियमों के अनुसार शून्यादि निशानी के प्रक्षेप पूर्वक योग्यरूप से संक्षिप्त कर के लिया जाता है. २.३ अंतिमवाक्य से कृति माहिती : यह सूची भी आदिवाक्यवाली सूची की तरह होगी परंतु इसमें निम्नोक्त भिन्नता होगी. इसमें 'अंतिमवाक्य' अपने अंतिम अक्षर पूर्व के अक्षरों की ओर विलोम (उल्टे) जाते हुए अक्षरों के अकारादि क्रम से अवस्थित होंगे. सेटिंग में भी अंतिमवाक्य को दाईं ओर सटाकर right align कर के रखा जाएगा ताकि अनेक अंतिम वाक्यों के अंत के अक्षर एक ही नजर में आ सकें. यहाँ पर अपेक्षित अंतिमवाक्य के ढूँढने हेतु उन्हें दाएँ से बाएँ (right to left) पढ़ना होगा. For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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