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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में ग्रंथालय सूचना प्रणाली में प्रयुक्त विविध अवधारणाएँ कृति की अवधारणा कृति शब्द का सामान्य परिचय : कर्ता द्वारा विषय प्रतिपादन की इच्छा से पद्य, गद्य, अथवा गद्य व पद्य मिश्रित आदि किसी भी प्रकार से शब्दबद्ध की गई रचना को कृति कहते हैं. इस तरह की हर रचना की एक या अधिक नियत भाषा होती है, अपवादिक मामलों के सिवाय उसका अध्याय, गाथा, ग्रंथाग्र आदि प्रायः नियत परिमाण होता है. नियत आदि/अंतिमवाक्य होते हैं. पर्याप्त मात्रा में कृतियों के कर्ता का नाम भी उपलबध होता है. गद्य, पद्यादि प्रकार होते हैं व एक या अधिक विषयों का प्रतिपादन होता है. कृति का रचनावर्ष व स्थल भी हो सकता है. ये कुछ ऐसे तथ्य हैं कि जो हर रचना के अपने निजी होते हैं. किसी भी रचना संबंधी चाहे जितनी हस्तप्रतें या उसके प्रकाशन देख लिए जाय - उपरोक्त बातें तो अपनी मर्यादा में लगभग एक समान ही मिलेगी. रचना को ही यहाँ कृतिनाम से संबोधित किया गया है. यह कृति 'कृति स्वरूप' में वर्णित मूल, नियुक्ति, भाष्य, टीका, अनुवाद, विवरण, संबद्ध, आदि किसी भी स्वरूप में हो सकती है. कृति यदि किसी अन्य कृति के टीका, वृत्ति, भाष्य, विवरणादि स्वरूप होती है तब वह टीका आदि 'संतति' स्वरूप कही जाती है व मूल कृति परिवार के B, C, D, E, F...आदि किसी भी स्तर के सदस्य के रूप में होती है. उपयोगिता अनुसार कृतियों को दो प्रकार से देखा गया हैं. स्थिर एवं फुटकर. यहाँ पर 'स्थिर' कृति से जिनकी विधिवत स्वतंत्र रचना हुई हो अथवा किसी कृति का अंश ही होने पर भी जिसकी स्थापना एक स्वतंत्र कृति के रूप में प्रस्थापित हो - यह अर्थ लिया जाएगा. यथा - आगम, प्रकरण, महाकाव्य, स्तवन, स्तुति, टीका, बालावबोध आदि. व्यक्तिगत छुटपुट उद्धरण संग्रह, बोल, थोकडा चर्चा आदि को यथायोग्य 'फुटकर' कृतियों में लिया गया है. कल्पसूत्र व भगवद् गीता जैसी कृतियाँ दशाश्रुतस्कंध, महाभारत के ही भाग स्वरूप होने पर भी लोक में एक तरह से स्वतंत्र के ही रूप में अत्यंत रूढ़ होने से इन्हें स्वतंत्र स्थिर कृतियों के रूप में लिया गया हैं. कृति का अन्तरंग परिचय : किसी भी भारतीय कृति के प्रारम्भ में प्रायः मंगलाचरण होता है. साथ ही विषय संकेत, अपनी माहिती का आधार, ग्रन्थ पठन के अधिकारी व ग्रन्थ रचना प्रयोजन आदि का उल्लेख होता है. बाद में क्वचित भूमिका आदि बांधकर विषयवस्तु का निरूपण हुआ दिखता है. मंगलाचरण में सामान्यतः कर्ता के इष्टदेव या गुरु का स्मरण या उनके गुणों का संकीर्तन/अनुशंसा/अनुमोदना मिलती है. कई बार कृति अध्याय-पाद आदि में विभक्त-उपविभक्त होती है तो कई बार संपूर्ण कृति में कोई अध्याय आदि नहीं होता और वह एक संपूर्ण अखंड कृति होती है. ___ कई बार कृति गाथा, श्लोक या सूत्रबद्ध होती है, जिनका स्वयं का अपना एक अनुक्रम होता है. कुछ कृतियों में यह कृति की पूर्णता तक प्रारम्भ से अंत तक सीधा आगे बढ़ता चला जाता है, तो कई कृतियों में प्रत्येक अध्याय आदि से यह क्रम नए सिरे से प्रारम्भ होता है. कृतिगत अध्याय/पाद आदि के अपने स्वतन्त्र एकाधिक नाम भी होते हैं. कृति की महाकाव्य, नाटक, सूत्र, चंपू, सट्टक, स्तोत्र, स्तव, रास, ढाल, चौपाई, छंद, सज्झाय, स्तवन, स्तुति, चैत्यवंदन, पद धवल, झूलणा, झीलणा, हरियाली इत्यादि प्रकार की 'रचना शैली' भी होती है जो कि प्रायः मूल की ही होती है. इनका उल्लेख यथायोग्य कृति नाम के साथ ही ज्यादातर प्राप्त होता है. कृति के अन्त में अक्सर कर्तानाम, कर्ता की गुर्वावली, रचना संवत, रचना स्थल आदि अनेकविध ऐतिहासिक महत्व के तथ्यों का समावेश करती रचना प्रशस्ति हुआ करती है. किन्हीं कृतियों में रचना प्रशस्ति प्रत्येक अध्याय आदि के अन्त में भी होती है. कृतियों की सरलता एवं शीघ्रता से पहचान हो सकें एवं उनके बीच के पारंपरिक संबंधों को सुगमता से जाना जा सकें एतदर्थ यहाँ की सूचना प्रणाली में कृति के निम्नलिखित 'स्वरूप' अभी तक तय किये गये हैं. १. मूल : किसी अन्य कृति हेतु न लिखी जाकर संपूर्ण स्वतंत्र रूप में अपने विषय का प्रतिपादन करने वाली कृति 'A' स्तर की अर्थात् 'मूल' के रूप में पहचानी जाती है. इसके नीचे B, C आदि स्तर की अन्य कृतियाँ इसके परिवार के सदस्य के रूप में हो सकती हैं परंतु इसके उपर कोई अन्य कृति नहीं होती. अपने परिवार के सर्वोच्च मुखिया के रूप में 'मूल' प्रधान कृति होती है. 13 For Private And Personal Use Only
SR No.018024
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2003
Total Pages615
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size5 MB
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