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________________ रिमिय 565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 6 रुक्ख पदसञ्चारः रिभित उच्यते। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०) रा०। स्था०। न०। रीयमाण त्रि० (रीयमाण) संयमानुष्ठाने, गच्छति, विहरति च। आचा०१ नाट्यभेदे, आ० म०१ अ०। स्था०। श्रु०६ अ०२ उ०। उत्त०। भ०। बृ०। रिमिण (देशी०)। रोदनशीले, दे० ना०७ वर्ग 7 गाथा। रीर धा० (राज) दीप्तौ, "राजेरग्घ छज्ज-सह-रीर-रेहाः" ||8| रियन० (ऋत) सत्ये, 108 श०७ उ०। 1 / 100 / / इति राजे रीर आदेशः। रीरइ / राजति। प्रा०। रियारिय न० (रितारित) गमनागमने, रा०। जी० / आ० म०। रुअरुइआ (देशी०) उत्कण्ठायाम् , दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। रिरंसा स्त्री० (रिरंसा) कदलीगृहादिक्रीडायाम् , आ० म० 1 अ०। रुइस्त्री० (रुचि) परमश्रद्धायाम् , आत्मनःपरिणामविशेषरूपे, बृ०१ उ० रिरिअ (देशी०)। लीने, दे० ना०७ वर्ग 7 गाथा। 1 प्रक० / चेतोऽभिप्राये, सूत्र०२ श्रु० 1 अ० / ध० / विशे० / रिसजिह-पुं० (रिश्यजिह्व) महाकुष्ठभेदे, प्रश्न०५ संव० द्वार। अभिलाषरूपे, स्था०१० ठा०। प्रीतौ, आव०४ अ०। विशे०। नैर्मल्ये, रिसभ-पुं०(ऋषभ)"ऋणज्र्वृषभत्वषौ वा"|| 8 ||141 // उत्त०१ अ०। इति ऋतो रिर्वा / रिसहो। उसहो। वृषभे, प्रा०१पाद। प्रथम-तीर्थकरे, तिविहा रुई पण्णत्ता / तं जहा-सम्मरुई मिच्छरुई सम्माआ० म० (व्याख्या 'उसभ' शब्दे 113 पृष्ठे) मिच्छराई। स्था०३ ठा०३ उ०। *ऋषभो वृषभस्तद्वद्यो वर्त्तते स ऋषभ इति, आह च-"वायुः समुत्थितो रुइर न० (रुचिर) मनोजे, उत्त०३२ अ० / स्निग्धे, जं०१ वक्ष० / नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः। नर्दत्वृषभवद्यस्मात् , तस्मादृषभ उच्यते।। सुन्दरे,"रुइरं राह रम्म"। पाइ० ना०१४ गाथा। 1 // " इत्युक्तलक्षणे स्वरभेदे,स्था०७ ठा०। अनु०।अस्थिद्वयस्यावेष्टके रुइल त्रि० [रुचि(र)ल] रुचिर्दीप्तिस्तां लान्त्याददतीति रुचि-लानि। पट्टे,तं०। सद्दीप्तिमत्सु। सूत्र०२ श्रु० 1 अ०। मनोज्ञे, औ०। जं०। जी०स०। रिसभपुर न० (ऋषभपुर) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वतः शीतोदायाः ब्रह्मलोके स्वनामख्याते विमाने, न०। ब्रह्मलोके हि "रुइल्लं रुइल्लावंतं महानद्याः दक्षिणस्थे राजधानीभेदे, ती०१० कल्प। रुइल्लप्पभं रुइल्ललेसं रुइल्लवण्णं' इत्यादि विमानानि सन्ति। स० रिसि-पुं० (ऋषि) "ऋणर्वृषभवृषौ वा"|| 8 / 1 / 141 // इति सम० ऋतो रिर्वा / रिसि। इसि / गच्छगतगच्छनिर्गतादिभेदेषु साधुषु, प्रा०। संचणी (देशी०)। घरट्ट्याम् , दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। पा० / मुनौ, "जइणो तवस्सिणो तावसा रिसी'। पाइ० ना० 32 गाथा। रंचिजमाण त्रि० (रुचीयमान) श्लक्ष्णखण्डीयमाने, जं०१ वक्ष० / रिसिघायण न० (ऋषिघातन) ऋषिवधे, "विजं परिभवमाणो, आयरि आ०म०॥ आणं गुणे पणासिंतो। रिसिघायणाण लोअं, वच्चइ मिच्छत्तसंजुत्तो।" रंजधा० (रु)शब्दे,"रुते रुंज-रुण्टौ"||८||५७॥ इति रौतेः द०प०। रिसिदास-पुं० (ऋषिदास) "साकेतनगरे याते सार्थवाहपुत्रे, अणु०। (स रुंजादेशः 1 रुंजइ। प्रा० 4 पाद। च वीरान्तिके प्रव्रज्य बहुवर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य सर्वार्थसिद्धे उत्पद्य रु(रु)जग-पुं० (रुचक) द्रुमे, कस्मिंश्चिद्देशे द्रुमाः रुचका इत्याख्यायन्ते। महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकदशानां 3 वर्ग तृतीयाध्ययने दश०१०॥ सूचितम्) रंटिय त्रि० (रुत) गुञ्जितध्वनौ, पाइ० ना० 262 गाथा। रिसिभासियन० (ऋषिभाषित) उत्तराध्ययनादिश्रुते, विशे०। "देवलोग संढ (देशी )आक्षिके, कितव इत्यर्थः / दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। घुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासिय अज्झयणा''। स० "पण्हवा रुढिअ (देशी०)। सफले, दे० ना०७ वर्ग 18 गाथा। गरणदसाणं दस अज्झयणा पण्णता, तं जहा-उवमा-संखा-रि(इ) रुंद त्रि० (रुन्द) विस्तीर्णे, बृ०१उ०३ प्रक०। औ०। ध०। नि० चू०। सिभासियाइं"। स्था०१० ठा०। नं०। प्रश्न०। शिखरितलकूटाधिपतिदेवे,द्वी०। स्थूले, पाइ० ना०७३ रिसिवज्झा स्त्री० (ऋषिहत्या) ऋषिव्यापादने, "राअं पिअं वजह गाथा। विपुले, मुखरे च।.दे० ना०७ वर्ग 14 गाथा। रिसिवज्झा जह न सुंदरो होइ।" बृ० 1 उ० 3 प्रक०। रुंघंतिया स्त्री० (रुन्धन्तिका) यन्त्रके ब्रीहिकोद्रवादीनां निस्तुरिसिवाइय-पुं० (ऋषिवादिक) गन्धर्वभेदे, प्रज्ञा०१ पद। षत्वकारिकायां क्रियायाम् ज्ञा०१ श्रु०७ अ०॥ रीइ स्त्री० (रीति) स्वभावे, अनु० / भ०। संध धा० (रुन्ध) आवरणे,"रुधेः रुत्थकः"||||१३३ / / इति रीइया स्त्री० (रीतिका) पित्तलाख्ये धातुविशेषे, औ०। आचा०। रुधेः रुत्थनः इत्यादेशो वा / उत्थडइ / रुंधइ। प्रा०1"व्यञ्जनारीडधा० (मडि) इदित्। चुरा०। भूषायाम् ,"मण्डे चिञ्च-चिचिअ- | ददन्ते"|| 81 41239 / / इति व्यञ्जनाद्धातोरन्ते अकारः।रुंधइ। चिचिल्ल-रीड-टिविडिक्काः"|| 8 | 4 | 115 / / इति मण्डे: रुणद्धि / प्रा०। "मो दुह-लिह-वह-रुधामुचातः"||८|| रीडादेशः। रीडइ / मण्डयति। प्रा० 4 पाद। 255 / / इति द्विरुक्तेः डभो वा / रुभइ / रुधिज्जइ / प्रा०४ पाद। रीढ (देशी०) / अवगणने, दे० ना०७ वर्ग 8 गाथा। रंभणन० (रोधन) आवरणे, प्रश्न०१आश्रद्वार। गुप्तप्रक्षेपणे, बृ०३ उ०। रीढा स्वी० (रीढा) यदृच्छायाम् घुणाक्षरन्याथे,बहुधम्मचरण-हसणं, रुक्ख-पुं० न०। (वृक्ष)पुं०। "वृक्ष-क्षिप्तयोः रुक्ख-छूढो"|| रीढा जणपूयणिज्जाणं / बृ० 1 उ० 3 प्रक० / जी०। अनादरे, ''हेलाय / 2 / 127 / / इति वृक्षे रुक्खादेशो वा ! रुक्खो / वच्छो / प्रा० / अनादरो रीढ''| पाइ० ना० 162 गाथा। "गुणाद्याः क्लीबे वा" // 8 // 1 // 34 // इति प्राकृते क्लीबत्वं वा
SR No.016148
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1492
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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