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________________ भरह 1396 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह कुणंति ते राहणसंतचित्ता, तेसिं सुराणं अह अट्ठमंते। चलंति सिंहासणए विसाले, नाणेण नाउं अह अंबरत्था / / 244|| भणति दाहामु करेमु किं पि, तओय ते हिट्ठभणुम्मुहा य / जएण बद्धाविउदाउ अग्छ, सिरंजालिं कट्ट भणति के से॥२४५॥ अम्हाण देसे वि सईदुरप्पा. ता तं सिवारेह जहा तहा नो। पुण्णो अमागच्छइ दुड्डचित्तो, एवं-सुणेत्ता कुलदेवयाए / / 246 // अणंति एसो असझो सुगणं, नएस सत्थस्स विसस्ससज्झो। न एस अग्गीऍ हिमाण उज्झो, नएस मंताण व तंतगज्झो / / 247 // सुणेह भो देवपिया ! महप्पा, सुचकवड्डी भरहेसराया। ण एस सक्कापुरिसत्तणेण, णिवारिउं केण व पाणिणत्थ।।२४८।। तहा वि तुम्हाणुवरोहओ से, करेस्समुवसरगमहामहंत। एयं भणित्ता य तयंतियाओ, गच्छंति उप्पं कडगस्स झति॥२४६।। कुणंति वासं मुसलप्पमाणं, मुट्ठिप्पमाणं जलधारयाहिं। बहलंधपारं घणवायजुत्तं, सुभीसणं कलकयंततुल्लं॥२५०|| ते सत्तरत्तं भरहो तओ से. परामुसे धम्ममणिं पगिट्ठ। पवित्थरे बारह जोणणाई, हियाइ किंची परसं पहेय।।२५१।। कसन्नए तत्थ रुहित्तु राया, परामुसे छत्तमणि विसालं। पवित्थरे चम्म व तं पिउप्पिं, मणी ठवेइ अह मज्झभागे।।२५२।। अहो य चम्म उवरि च छत्तं, मज्झे मणि जोइयसव्वसेन्नं / न तत्थ रांगो न भयं न वाही, समेन्नजुत्तस्स नरीसरस्स॥२५३।। सव्वाणि धन्नाणि रुहंति तत्थ, सब्वाइ सागाइहवंति खिप्पं / पुव्वत्हकाले उववेंति साली, मज्झन्हकाले पविसति लोया / / 254 / / न तत्थ राई न दिणं न चंदो नक्खत्तमाला न गहा न सूरो। समुन्नयं सव्वजय पि जायं, भएण हीणं सुहसंतिजुत्तं // 25 // तओपभि बंभपुराणगतं. सुहं सुडेणं अह सत्तरत्तो। आ चिट्ठई तो अभिओगदेवा, चिंतंति एयाएँ महाजुईए // 256 / / इवीरें दित्तीऍपराऍ रन्नो, सुबकवट्टित्तमहामहाए। लद्धाएँ पत्ताऐं समागयाएँ. विवढमाणस्स वि देवहम्मा // 257|| करेंति एवं भरहेसरस्स. * पचक्खमत्ताण पराभवं तु / पेहित्तु एवं दस छत्सहस्स देवाण संबद्धसुबद्धकच्छा॥२५८।। नाणाउहा बम्मियदेहधारी, समागया नागकुरपासे। अहंसु एवं जह भो न किं वा, तुब्भे वियाणे जह एस चक्की / / 256 / / जाओ महप्पा भरहे विसाले, विक्खायाकित्ती नरदेवमज्झे। आणावहा जस्म नरा सूरा वि, कयं सहेव भरहंसमत्थं / / 260|| सदाणवं जेण बसे स तुब्भे, न याणहा कीस खली करेत्ता। एवं गए वी पडिसंकरेहा, एवं भणिजा जह किं न सिट्ठ // 261|! दिव्योवसर्ग पसमेह खिप्प, णो चेवणं पासह जीवलोयं / अजैव चित्तं न भवेह पच्छा, तुज्झेतओ तं पसमित्तु सव्वं // 262|| गच्छति आवाडचिलायपासे, कहित्तु तेसिं पि जहा पवित्तं / भणंति सा गच्छह हायगत्ता, __अग्गाइं अग्घाइँ गहाय खिप्पं / / 263 / / अन्नं पिजं सारतर हयाइ, माणिक्कमुत्ताणिदसणाई। कयंजली सीसकयप्पणामा, उवेड सामि भरह नरीसं // 264 // न उत्तमा दीणजणक्किपालु. कणति बाहं सरणाऽऽगयाण। जहाऽऽगया तं पि गया भणित्तु.. एवं सुरा तो कुलदेवया ते॥२६५|| तहा करिता सयलं चिलाया, पासम्मि गंतुं भरहस्स रन्नो। समाहि णे नायमिणं चिराउ, तुमं तु नेया भरहस्स अड्डो // 266|| चक्काइदंडप्पमुहाण सामी, चउदिसण्हं रयणाण दित्तो। तुम्हाण अम्हे सरणं पवन्ना, कया वि एवं न पुणो करस्सं॥२६७।।
SR No.016147
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1636
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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