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________________ भरह 1387- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भरह तं नाहनाहोऽसि अणाहयाणं। तं सोक्खदाया य दुहट्टियाणं, तं कप्परुक्खोऽसि फलत्थियाण // 25 // तंवदिओ देव! सुरासुरेहिं तं वन्निओ जक्खसु किंनरेहिं। तं पूइओ दाणव-खेयरहिं.' तं नाह! नाया भुवणायरस्स॥२६।। तं देव! दाया य किभिच्छ्यिस्स, तं सामि! सामी य असामियस्स। तं देहिं अम्हाण विसालवच्छ! रजंच रटुं च सुणिद्धअच्छा / / 27| परंपराएउ सिसि इच्छा, पच्छा उजाणूकरउत्तिमंगे। भूमीऍ काउं धरणीयलम्मि, तिक्खुत्तहत्तं अभिवंदिऊण ||28|| पासेसु चिट्ठति सुखग्गवग्गा; दिणे दिणे भत्तिसुनिब्भरंगा। कुणंति जा के वि दिणे तिसंझं, एवं ति ता नागपहू पहिट्ठा // 26 // जिणस्स आगच्छइ वंदणत्थं, ते तम्मि काले कुसुमोवयारं! काउंनमंसित्तु पए पहाणे, भणति तं सामि! भवाहि दाया / / 30 / / भोगाण रज्जस्स जिणायरेण, ते जायमाणे धरणो सुणेता। नागिंदराया पभणेइ भो सो, सामी असंगो परिचत्तवित्तो // 31 // ममत्तबुद्धिं न करेइ देहे. संखं व सामी उ अरंगणिज्जो। कुम्मो व गुत्तो सयलिंदिएहि, मुणालपत्तं व निरूवलेवो // 32 // गउव्व निचं अनियत्तगामी, दव्वे य भाये तहखेत्तें काले। असंगबुद्धी समसत्तुमित्तो, न देइ वा किंचि न फेडईह॥३३॥ सामिस्स सेवा अह लाभहेऊ, ता देमि तुम्हाण अहं जिणस्स। विजासहस्से अडयायलीसं, पण्णत्तिगोरीपमुहेण सग्गा // 34 // तो जाह वेयड्वनगे विसाले, तो दाहिणिल्लाए अहुत्तराए। सेढीऍ गंतूण लहु करेत्ता, पन्नाससेढीय पुरे पहाणे॥३५॥ आईए काउंरहनेउरंतु, अहा तुरिल्ले गगणंगणहूं। पुरं निवेसित्तु तडे विसाले, बहुंजणं विज्ञ्जबलेण नेउं // 36 // हिंडेह इच्छाएँ नहे सुरो व्व, एवं तिते सामिप (क) यप्पसाया। नागिंददिन्नं पडिवजयंति, अपुचमत्तीऍपसण्णमाणसा॥३७॥* गिछिहत्तु सामिस्स कयप्पणामा, नागिंदरायं अभिवंदिऊण। गंतूण सामिम्स कयप्पसाय: चिंतित्तु रोमचियसव्यगत्ता॥३८|| विजाकयं दिव्वविमानरूढा, पिऊण पासे उवदंसयति। रिद्धिं च सव्व पि कहंति वत्तं, विणीऍ गंतु भरहेसरस्स // 36 // कहति सव्वं पिजणस्समूह, नेउऽचलो भित्तु तहा करंति। तयप्पमाणे नयरे विसाले, तेसिं महीसु रिसहस्स बिब // 40|| करति भत्तिभरनिब्भरंगा, नमी महप्पा य सुदक्षिणाए। सेढीऍ इच्छापडिपुन्नभोए. अह उत्तराए विनमी वि राया // 41 // भुजेइ भए जह देवराया, सामी वि भिक्खाएँ गिहे गिहे य। हिंडेइ गामे नगरे य निच्च, न पावई भिक्खमणेसणीयं / / 42|| जओ न जाणाइ जणो किमपि। गिहागयं दिदु जिणं पहिहो। जणोऽभिमतेइ गयस्सयाहिं, पुप्फेहि मुत्ताहलदेवदूसे // 43 // पहाणअस्सेहिँ रहेहिँ निच्चं, संवच्छर जाव उचीरधारी। निरस्सणो हिंडिउ हत्थिणक्खे, पुरे विसालम्मि गओ महप्पा / / 44|| तत्थऽस्थि सोमप्पभनामराया। सेयसनामो कुमरो वरो वि। तत्धत्थि पुत्तो भरहाहिवस्स, भणंति सो बाहुबलिस्स अंते॥४५॥ विसालकित्ती गुणगामठाणं, ते दो वि सेढीऍ परोप्परंतु। कहति लद्धे सुमिणे पसत्थे। कहेइ सेयंसु जहा चलंतो॥४६॥ मेरू सठाणाउमएहि दिट्ठो, चिचा य ते उम्मयकुंभसिण्णो। ठिओ सठाणेहिं य दिप्पमाणे, सूराउ दित्ती चलिया उठाणा // 47 // किया उते ठाणठिया अणेण, सेट्ठी जहा कोइ महामहंतो। नरो रणे जुज्झइ संतगत्तो, सेयंसनामक्कयपाडिहेरो॥४८॥ *गिण्हति विजा सहसान ऊण, पन्नास आया य विगप्पसिद्धो॥३७॥
SR No.016147
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1636
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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