SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1076
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुहवीचंद 1068- अभिधानराजेन्द्रः - भाग-५ पुहवीचंद एवं विचिंतिरीओ, अणुमोयंतीउ सुद्धभावाओ। पत्ताउ केयलसिरिं, खणेण ताओ वि सव्वाओ।।७२।। तटवेल चिय जयरव-विमिस्सपडपडहसद्दभरियनह। घीलतकन्नकुंडल-सुरमंडलमागयं तत्थ।।७३।। पडिवन्नदव्वलिंग, तं मुणिपवरं नमेइ सुरसंघो। केवलमहिम परमं, करेइ हरिसं सुपडिपुन्नो 74 // दह्रण तं च चित्तं, सुमंगला रयणसंचओ सिट्टी। गुरुसंवेगोवगओ, संपत्तो झत्ति वरनाणं / / 7 / / इय पिच्छिवि अच्छरिय, राया सिरिसेहरो सपरिवारो। पत्तो तहिं वि पणमिय, सुमुणिं पुरओ समासीणो // 76 / / अहयं विपुव्वपेसिय–वरबाहणजाणपरियणो देव!। इह आंगतुमणो विहु, पत्तो कोऊहलेण तहिं / / 77|| नियचरियकहणपुव्वं, ते णुत्तोऽहं जहा तुमं सुधण!! उज्झाए गंतुमणो, पत्तो पुण कोउगेण इह // 78|| तथाहिदूरं पत्तो सत्थो, पुणरवि सुलहं न एरिसं पुज्ज। इय चिंतावाउलिओ, न तरसि गंतुन वा ठाउं / / 76|| ता कित्तियमित्तमिणं, चित्तं इहरि विखवइ (पुणो) जंते। दच्छसि इत्तो श्रब्धा-हियमुभयं तत्थ संपत्तो / / 8 / / इय सम्म आयन्निय, नमिय गुरुं इह समागओऽम्हि कमा। संपइ अच्छरियकरं, पहु? तुह पासं समणुपत्तो / / 81 / / इय निसुणतो गुरुतर-गुणाणुरागाइरेगओ राया। आणंदमुद्दियमणो, चितिउमेवं समारद्धो / / 8 / / सव्वगुणसायरो सो, महाणुभावो महामुणी जेण। तह साहियं सकजं, निजियमोहणुबंधेण // 3 // धन्नाणं भंजियमो-हनिविडनिगडाण भोगसामग्गी। न तरइ काउं धम्म-तरायमचंततुंगा वि।।८४।। हा कह जाणंतु चिय, पडिओऽहं रज्जकूडतम्मि। गुरुजणदक्खिन्नवसा-वभारसामन्नदंतिव्व॥८५। कइया सहेलपरिस-कसयलभोगोवभोगजोगाण। धम्मधराण मुणीणं, मज्झे गणणं लहिस्सामि॥८६|| कइया गुरुपयपणओ, नाणचरित्ताण भायणं होह। कइया सम्म सहिहं उवसगं परिसहुप्पीलं॥८७॥ इच्चाइ चिंतयंतो, अपुवकरणक्कमेण स महप्पा। सिवपयगमनिस्सेणिं, खवगस्सेणिं समारूढो॥८८।। सियझाणघणेणखणे–ण तेण घणधाइकम्मसंघायं। संचुन्निऊण संप-तमुत्तमं केवलं नाणं / / 86 / / अह तत्थ सुहम्मवई, पत्तो अप्पित्तु दध्वलिंग से। पणमित्तु चलशजुयलं, केवलिमहिमं करेसी य॥६॥ तं दट्टुं हरिसीहो, राया पउमावई (य) सह तत्थ। संपत्तो जंपतो, अहो किमेयं किमेयं ति।। 61 / / ताओ वि तस्स भन्जा-उतत्थ हरिसेण आगया उलहुँ। संवेगपरिगयाओ, केवलनाणं च पत्ताओ / / 6 / / एय तंगुणसायर केवलिकहियं महंतमच्छेरं। सो सुधणसत्थवाहो, विम्हियचित्तो विचिंतेइ / / 63|| अह पुच्छइ नरनाहो, भयवं! कि तुम्ह उवरि अम्हाण। अइगुरुओ पडिबंधो, तो इय जंपइ समणसीहो।।६४|| तं निव! चंपाइ पुरा, जयराया पियमई पिआ हुत्था। कुसुम्यउहु त्ति नामे-ण नंदणो तुज्झ अहमासि / / 65|| संजमगुणेण तुब्भे, विजयविमाणे सुरा समुप्पन्ना। अहयं पुण सव्वड्डे, संजोगो पुण इदं जाओ॥६६|| तो मज्झ उयरि गुरुओ, नेहो तुम्हाण इय सुणताणं / ताणं जायं जाई-सरणं तह केवलं नाणं / / 17 / / तेसिं पि कया महिमा सुरवइणा भत्तिभारनमिरेण / जाओ परमाणंदो, नयरीए जणियजणपुज्जो // 18 // अह सुधणसत्थवाहो, मुणीसरं नमिय पुच्छए एवं। तुम्ह गुणसायरस्स य, समाणगुणया कहमिवेसा ? // 66|| मह नंदणो अहेसी, वयं गहेसी मए सद्धिं / / 100 / मम समसुचिन्नधम्मो, तणुइयकम्मोऽणुभूयसुरजम्मो। सो कुसुमकेउतियसो, सुंदरगुणसायरो जाओ॥१०१।। पुन्नं सुहाणुबंधं, समपरिणामेण पुट्ठमम्हहिं। समसुह परंपराए, परिणयमेवं तओ अम्हे // 102 / / एयाओ वि बहूओऽ–णंतरभवभारियाउ दुण्हं पि। कयसंजमाउऽणुत्तर-सुरेस वसिऊण सुहजोगा।॥१०३॥ जायाओ जायाओ, एवं भवियव्वयानिओगेणं। संपत्ताओ केवलि-सिरिं च सामग्गिजोगेण / / 104 / / इय सोउ पडिबुद्धो, सुधणो वि सुसावयत्तमणुपत्तो। अन्नो वि बहू लोगो, सुचरियचरणुज्जओ जाओ।।१०५।। हरिणा हरिसीहसुओ, ठविओ रजम्मि तयणु हरिसेणो। पुहईचंदरिसी वि हु, सुचिर विहरिय सिवं पत्तो॥१०६।। पृथ्वीचन्द्रक्षितिपचरितं संनिशम्येति सम्यक्, तातभ्रातृस्वजनदयितामुख्यलोकोपरोधात् / दीक्षाऽऽदानप्रगुणमतयो गेहवासेऽपि सन्तो, भव्या लोकास्त्यजत सततं कामभोगेषु शक्तिम्॥१०७।। इति पृथ्वीचन्द्रनरेन्द्रकथा। ध० 202 अधि०६ लक्ष०। पुहवीचलपुं० (पृथिवीचल) अनङ्गमञ्जरीपितरि स्वनामख्या ते नरनाथे, दर्श०३ तत्व। सोपारकपट्टनराजे अट्टनमल्लपोषके, आव० 4 अ०। पुहवीसपुं० (पृथ्वीश)। राजनि, "न युवर्णस्यास्वे" ||8|16|| इति सन्धिनिषेधे अस्वे इति पर्युदासात्-पुहवीसो। प्रा०१ पाद। पुहुत्त न० (पृथुत्व) विस्तारे, स्था० 4 ठा०२ उ०। समयपरिभाषया द्विप्रभृतावानवतौ, विशे०। भेदे द्विवचनबहुवचनयोः तदनुयोगोऽपितथा, यथा- “धम्मत्थिकाए धम्मत्थि कायदेसे धम्मस्थिकायप्पदेसा। 'इह सूत्रे धर्मास्तिकायप्रदेशा इत्येतद् बहुवचनं तेषामसंख्यातत्वख्यापनार्थमिति। स्था० 10 ठा०। पूअ (देशी ) दधनि, दे० ना०६ वर्ग 56 गाथा। पूइ स्त्री० (पूति) नासाकोथलक्षणे रोगविशेष, (208 गाथा) विशेष दुर्गन्धतायाम्, अनु० / मांसाऽऽदौ, आव०५ अ० / वृक्षविशेष, प्रज्ञा०१ पद। पूइकड न० (पूतिकृत)आधाकर्माऽऽदौ, सूत्रा० 1 श्रु०१ अ०३ उ० / पूइक ण्णी स्त्री० (पूतिकर्णी) पूतिपरिपाकतः कुथितगन्धा कृमिकुलाऽऽकुलत्यादुपलक्षणमेतत् तथा विधौ कर्णो श्रुती यस्याः। पक्करक्तं वा पूतिः तयाऽऽत्तौ कर्णी यस्याः सा पूतिक
SR No.016147
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1636
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy