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________________ णरसुंदर 1927 - अभिधानराजेन्द्रः भाग - 4 णरिंदसमणी तेण वि विम्हियमणसा, भगिणी अवितक्कियागया दटुं। उचियपडिवत्तिपुव्वं, पुट्ठा सयलं पि वुत्तंतं / / 20 / / तो तीइ वि सो कहिओ, उज्जाणे जाव चिट्ठइ निवृत्ति / सव्विड्डीइतओ सो,तयभिमुहं पट्ठिओ झत्ति / / 21 // सो पुण अवंतिणाहो, अइगाढछुहाइ पीडिओ तझ्या। वालुंकिडक्खणत्थं, एगम्मि अचिग्भिमीकच्छे।। 22 / / अवदारेण चोरु, व्य पविसमाणो स कत्थ यनरेण। मम्मपएसम्मि हओ, मुट्ठीए तह य लट्ठीए।। 23 // निट् ठुरपहारविहुरो, पलायमाणो तओ इमो तुरियं। धरणीवहे पडिओ, निचिट्ठो कट्ठघडिउ व्व।। 24 // इत्तो नरसुंदरनर-वरो विनियविजयरहवरारुढो। भगिणीवइस्सऽभिमुह, तम्मि पएसम्मि संपत्तो / / 25 / / नवरं तरलतुरंगम-निट्टुरखुरखणियरेणुपूरेण। उद्धरतिमिरवंत, व नहयलं तक्खणे जायं / / 26 / / तो दंसणविरहाओ, नरवररहतिक्खचक्रधाराए। तह निवडियस्स कंठो, दुहा कओऽवंतिनाहन्स / / 27 // अह पुव्वुत्तुजाणे, अवंतिनाहं निवो अपिच्छंतो। संभतो भइणीए, वुत्तंतमिमं कहावेइ / / 28 / / हा दिव्व! दिव्व ! किमिअं, ति सममुभंततरलतारच्छी। बंधुमई बंधुगिरं, निसामिउं आगया तत्थ // 26 // तो अवलोयंतीए, पणदुरयणं व निउणदिडीए। कह कहमवि तमवत्थं, संपत्तो तीइ सो दिट्ठो।। 30 / / अह नाउ मयं सपई, गुरुमुग्गरचूरिय व्व सा सहसा। पडिया अतुच्छमुच्छा-निमीलियच्छी महीपीढे। 31 / / पासट्ठियपरियणविहि-यसिसिरउवयारलद्धचेयन्ना। परिमुक्कपिकमुकं, एवं विलवेइ दीणमणा / / 32 // हा हियय ! दइय! पिययम ! गुणनिवहनिवास! पणयकयतोस ! केणं पाविट्टण, एयमवत्थं तुमं नीओ? // 33 // हा नाह ! तायसु मह, विओगवञ्जासणीइ भिज्जतं / हिययं हिययसुहावह ! कीस उविक्खेसि चिरकालं? // 34 // हयदिव्य ! किं न तुट्ठो, रज्जवहारेण देसचाएण। सुहिजणविओयणेण य, जमेयमवि ववसिओ पाव ! / / 35 / / इचाइविलवमाणी, वारिजंती वि बंधवनिवेण / सा णियपइणा सद्धिं, पडिया जालाउले जलणे।। 36 / / अहं निव्वेओवगओ, राया नरसुंदरो विचिंतेइ। अविचिंतणीयरूवा, अहो अणिचा जयस्स ठिई॥ 37 // जत्थ सुही विहु दुहिओ, निवो वि रोरो सुमित्तमवि सत्तू। संपत्ती वि विवत्ती, निमेसमित्तेण परिणमइ // 38 / / कहमहुणा भइणीए, चिरकालाओ समागमो जाओ? कहमिहि पि विओगो, धिरत्थु संसारवासस्स॥ 36 / / अवियजे खलु तिहुयणजणपलय-ताणकरणक्खडा जिणवरिंदा। सयय अणिच्चयाए, उररीकीरति ते वि हहा ! // 40 // रणसवडमुहउब्भड-भिडतरिउसुहड़चक्कअक्कमणे। जे पहुणो ते विखणे-ण चक्किणो जंति हा निहणं / / 41 जे गुरुभुयबलबलभ-दसंगया दलियदक्खपडिवक्खा / ते विहु हरिणो हरिणु, व्व हरेह हा हा कयंतहरी।। 42 // मन्ने करिकन्नसुरि-दचावतडिचावलेन निम्मवियं। इत्थं वत्थुसमत्थं, तेणं खणदिट्ठवटुं ति। 43 / / एवंविहे य ज इह, खणमवि निवसति मुणियपरमत्था। पीसत्था सगिहेसु, अहह महाधिविमा तेसिं॥ 44 / / इय सो विरतचित्तो, संबद्धो विहु घणाइसु कहं पि। भावण अपडिबद्धो, गेहम्मि गमेइ कइ वि दिणे॥ 45 // कालेण नंदणे र-जभारधरणुद्धरे ठविय रज्ज। सिरिसेणगुरुसमीवे, दिक्खं गिण्हइ महीनाहो / / 46 / / वत्थाइसु गामाइसु, समयाइसु कोहमाणमाईसु। दव्वे खित्ते काले, भावे परिमुक्कपडिबंधो।। 47 / / काऊण अणसणं सा-सणं मणे जिणवराण धारंतो। देहे वि अपडिबद्धो, मरिउंगेवे सुरो जाओ।। 46 // तत्तो य उत्तरुत्तर-सुरनरसिरिमणुहवित्तु कइ वि भवे। पव्वजं पडिवज्जिय, सो संपत्तो पयं परमं / / 46 / / श्रुत्वैव, नरसुन्दरस्य चरितं, हेतोगरीयस्तरात्, कस्मादप्यनलंभविष्णुमनसो, दीक्षा गृहीतु द्रुतम्। संबद्धा अपि देहगेहविषय-द्रव्याऽऽदिषु द्रव्यतो, भावेन प्रतिबन्धबुद्धिमसमां, मैतेषु भव्याः ! कृत // 50 // ध० 2074 गाथा // णराअ न०(नाराच) "वाऽव्ययोत्खातादावदातः " | 8 | 1 / 67 / इत्यातोऽन्वम् / ('णाराय ' प्रकरणे वक्ष्यमाणेर्थे) प्रा०१ पाद। णराहिव पुं०(नराधिप) राजनि, उत्त०६ अ०।"कुंथूनाम नराहियो।" उत्त०६अ। णरिंद पुं०(नरेन्द्र) नराणामिन्द्रो नरेन्द्रः / दशा० 10 अ०।" ह्रस्वः संयोगे दीर्घस्य" / 81 / 84 / इति हस्वः / प्रा० 1 पाद / परमैश्वर्ययोगात् (स०। औ०) समस्तभरताधिपे (प्रश्न० 4 आश्र द्वार) राजनि, औ०। चक्रवर्यादौ,ध०२ अधि० आ०म०। उत्त०। प्रजापतौ, व्य०२ उ० ! बृ०। णरिंदप्पह पुं०(नरेन्द्रप्रभ) हर्षपुरीयगच्छोद्भवे ताराचन्द्रसूरिशिष्ये, अनेन अलङ्कारमहोदधिः, काकुत्स्थकेलिश्चेति द्वौ ग्रन्थौ रचितौ। जै० इ०। णरिंदवसह पुं०(नरेन्द्रवृषभ) राजमुख्ये, उत्त० 15 अ०।" एवं नरिंदवसहा, निक्खंता जिणसासणे।" उत्त०६ अ०। परिंदसमणी स्त्री०(नरेन्द्रश्रमणी) मासराजकुलपालितायां श्रमण्याम्, सा चाऽदत्ताऽऽदानेन संसारं पर्यटितेति। सा उण लहिऊण अदत्तादाणगं मासरायकुलवालिया णरिदसमणी गोयमा ! तेणं मायासल्लभावदोसेणं उववन्ना विजुकुमाराणं वाहणत्ताए नउलीरूवेणं किंकरी देवेसु तओ वूया समाणी पुणो पुणो उववज्जंती वावजंती आहिंडियमाणुसतिरियच्छेसु सयलदोहग्गस्स दुक्खदारिद्वपरिगया सव्वलोयपरिभूया सकम्मफलमणुभवमाणी गोयमा ! ०जाव णं कह वि कम्माणं खओवसमेणं बहुभवंतरेसु तं आयरिय य पाविऊण निरइयारसामण्णपरिवालणेणं सव्वत्थामसुं च सव्वए मायालंबणविप्पमुक्केणं तु उज्जमिऊणं निद्दडावसेसीकयभवंकुरे तहा वि गोयमा ! जा सा सरागा चक्खुणाऽऽलोइया तक्कमदोसेणं माहणिच्छित्ताए परिनिव्वुमेणं से रायकुलवालियाणरिंदसमणीजीवे / महा०२ चू०।
SR No.016146
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1456
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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