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________________ 37 तृतीय भाग में आये हुए कतिपय शब्दों के संक्षिप्त विषय१- 'एगल्लविहार' शब्द पर एकाकी विहार करने में साधू को क्या दोष होता है इस पर विचार, एकाकिविहारियों के भेद, अशिवादि कारण से एकाकी होने में दोषाभाव, गण को छोडकर एकाकी विहार करने पर प्रायश्चित्तादि वर्णित हैं। 2- 'एगावाइ' शब्द पर आत्मा का एकत्व मानने वालों का खण्डन, तथा एक मानने में दोष, अद्वैतवाद (पुरुषाद्वैत) का खण्डन विस्तार से है। 3- 'एसणा' शब्द पर 14 विषय दिये हैं वे भी साधू और गृहस्थों के देखने योग्य हैं, जैसे-साधू को किस प्रकार भिक्षा लेना, और गृहस्थ को किस प्रकार देना चाहिये इत्यादि। 4- 'ओगाहणा' शब्द पर अवगाहना के भेद, औदारिक शरीर की अवगाहना (क्षेत्र) का मान, द्वित्रिचतुरिन्द्रियों की औदारिकावगाहना, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियों की औदारिकावगाहना, मनुष्यपञ्चेन्द्रियों की औदारिकशरीरावगाहना, वैक्रिय शरीर की अवगाहना का मान, पृथिव्यादिकों की वैक्रियशरीरावगाहना पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की वैक्रिय शरीर की अवगाहना का मान, पृथिव्यादिकों की वैक्रियशरीरावगाहना, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चों की वैक्रियशरीरावगाहना, असुरकुमारों की वैक्रियशरीरावगाहना, आहारकशरीरों की अवगाहना का मान,तैजस शरीर की अवगाहना का मान, निगोद जीवों की अवगाहना का मान, धर्मा-स्तिकाय के अवगाढानवगाढ की चिन्ता, एक जगह एक ही धर्मास्तिकायादि प्रवेशावगाढ है इत्यादि विवेचन है। 5- 'ओसप्पिणी' शब्द पर अवसर्पिणी शब्द की व्युत्पत्ति, और अवसर्पिणी कितने काल को कहते हैं, अवसर्पिणी काल में संपूर्ण शुभ भाव क्रम से अनन्त गुण से क्षीण होते हैं, और उसी तरह अशुभ भाव बढ़ते हैं, सुषमसुषमा से लेकर दुःषमदुः-षमा पर्यन्त अवसर्पिणी के छ भेद, सुषमादिकों का प्रमाण, भेरुतालादि वृक्ष का वर्णन, अष्टम कल्पवृक्ष का स्वरूप, उस काल में होने वाले मनुष्यादिकों के स्वरूप का वर्णन, और उनकी भवस्थिति, प्रथम से लेकर षष्ठ आरा तक का स्वरूपनिरूपण, जगत की व्यवस्था का वर्णन, भरतभूमिस्वरूप, अवसर्पिणी के तीन भेद इत्यादि विषय दिये हुए हैं। 6- 'ओहि शब्द पर अवधि शब्द की व्युत्पत्ति और लक्षण, अवधि के भेद, अवधि के नामादि सात भेद, अवधि क्षेत्र मान, अवधिविषयक द्रव्य का मान, क्षेत्र और काल के विषय का मान इत्यादि अनेक विचार हैं / 7- 'कजकारणभाव' शब्द पर कापिलादि मतों का खण्डन आदि विषय विचारणीय हैं। ८-'कम्म' शब्द पर कर्म के तीन भेद, और उनके स्वरूप का निरूपण, कर्म और शिल्प में भेद, नैयायिक और वैयाकरगों के कर्म पदार्थ का निरूपण, कर्म के स्वरूप का निरूपण, पुण्य और पापरूप कर्म की सिद्धि, अकर्मवादी नास्तिक के मत का खण्डन, कर्म के मूतत्व पर आक्षेप और परिहार, जगत के वैचित्र्य से भी कर्म की सिद्धि, जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध, कर्म का अनादित्व, जगत की विचित्रता में कर्म ही कारण है ईश्वरादि नहीं हैं इसका निरूपण, स्वभाववादी के मत का खण्डन, पुण्य और पाप कर्म रूप ही हैं, पुण्य और पाप के भिन्न लक्षण, कर्म के चार भेद, ज्ञानावरणीय दर्शनावारणीय और मोहनीयों का विचार, नामकर्म गोत्रकर्म और आयुष्यकर्म का निरूपण इत्यादि 37 विषय विचारणीय हैं। 6- 'कसाय' शब्द पर कषायों का निरूपण है। 10- 'काउसग' शब्द पर कायोत्सर्ग का अर्थ, किन किन कार्यो में कितने उच्छास मान व्युत्सर्ग है, किस रीति से कायोत्सर्ग में स्थित होना इत्यादि 15 विषय बड़े गंभीर हैं। 11- 'काम' शब्दपर काम की रूपित्वसिद्धि, अरूपित्व का खण्डन; तथा 'कायटिइ' शब्द पर जीवों की कायस्थिति, जीवों की नैरयिकादि पर्याय से स्थितिचिन्ता, तिर्यक् तथा तिर्यस्त्रियों की, और मनुष्य तथा मनुष्यस्त्रियों की कायस्थिति, देव तथा देवियों की कायस्थिति, पर्याप्तापर्याप्त के विशेष से नैरयिकों की कायस्थिति, इन्द्रियों के द्वारा से जीवों की कायस्थिति, कायद्वार से जीवों की कायस्थिति, इसी तरह
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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