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________________ 32 १३-प्राकृतशब्दों में जो कहीं कहीं () ऐसे कोष्ठक के मध्य में अक्षर दिए गए हैं, उनके विषय में थोड़े से नियम१- कहीं कहीं एक शब्द के अनेक रूप होते हैं परन्तु सूत्रों में एक ही रूप का पाठ विशेष आता है इसलिए उसी को मुख्य रखकर रूपान्तर को कोष्ठक में रखा है-जैसे 'अदत्तादाण' या 'अणुभाग' शब्द है और उसका रूपान्तर अदिण्णादाण या 'अणुभाव' होता है किन्तु सूत्र में पाठ पूर्व का ही प्रायः विशेष आता है तो उसी को मुख्य रखकर दूसरे को कोष्ठक में रख दिया है; अर्थात् 'अदत्ता(दिण्णा) दाण, 'अणुभाग (व)। 2- कहीं कहीं मागधी शब्द के अन्त में (ण) इत्यादि व्यञ्जन वर्ण भी कोष्ठक में दिया गया है वह "अन्त्यव्यञ्जनस्य" || 8/1 / 11 / / इस प्राकृतसूत्र से लुप्त हुए की सूचना है। ३-कहीं कहीं "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्|८/१।१७७। इस सूत्र से एक पक्ष में व्यञ्जन के लोप होने पर बचे हुए (अ) (इ) आदि स्वरमात्र को रूपान्तर में दिया है। 4- इसी तरह "अवर्णो यश्रुतिः" ॥१११८०का भी विषय कोष्ठक में (य) आदि रखा है। 5- तथा "ख-घ–थ-ध-भाम्" ||8|1 / 187 / / इस प्राकृत सूत्र से ख घ थ ध भ अक्षरों को प्रायः हकार होता है और कहीं कहीं हकार न होने का भी रूप आता है तो रूपान्तर की सूचना के लिये (घ) (भ) आदि अक्षर भी कोष्ठक में दिए हैं। यह नियम स्मरण रखने के योग्य है। 6- कहीं कहीं प्राकृतव्याकरण के प्रथमपादस्य 12-13-14-15-16-17-18-16-20-21-22-44 सूत्रों के भी वैकल्पिक रूप, और दूसरे पाद के 2-3-5-8-10-11 सूत्रों से भी किए हुए रूपान्तर को कोष्ठक में दिया है। 7- "फो भहौ" // 8/1 / 236 / / इस सूत्र के लगने से फ को (भ) या (ह) होने पर, दो रूपों में किसी एक को कोष्ठक में दिया गया है। इसी तरह इसी पाद के 241-242-243-244-248-246-252-256-256-261-262-263-264 सूत्रों के विषय भी समझना चाहिये। 8- "स्वार्थे कश्च वा'' ||8/21264|| इस सूत्र से आये हुए क प्रत्यय को कहीं कहीं कोष्ठक में (अ) इस तरह रखा है। इसी तरह "नो णः" / / 8/1 / 228 // सूत्र का भी आर्ष प्रयोगों में विकल्प होता है, इत्यादि विषय प्रथमभाग में दिये हुए प्राकृतव्याकरण-परिशिष्ट से समझ लेना चाहिए। 14- प्राकृत शब्दो में कहीं कहीं संस्कृत शब्दों के लिङ्गों से विलक्षण भी लिङ्ग आता हैकहीं कहीं प्राकृत मान कर ही लिङ्ग का व्यत्यय हुआ करता है जैसे तृतीय भाग के 437 पृष्ठ में 'पिट्ठतो वराह' मूल में है, उस पर टीकाकार लिखते हैं कि 'पृष्ठदेशे वराहः, प्राकृतत्वाद् नपुंसकलिङ्गता'। इसीतरह "प्रावृट-शरत्- तरणयः पुंसि / / 8/131 // इस सूत्र से स्त्रीलिङ्ग का पुंलिग होता है; और दामन्-शिरस्-नभस् शब्दों को छोड़कर सभी सान्त और नान्त शब्द पुंलिड्ग होते हैं, तथा 'वाऽक्ष्यर्थवचनाद्याः' / 1 / 33 गुणाद्याःक्लीबे वा' / 1 / 34! 'वेमाञ्जल्याद्याः स्त्रियाम् 1135 / सूत्रों के भी विषय हैं। अन्यत्र स्थल में भी लोक प्रसिद्धि की अपेक्षा से ही प्राकृत में लिड़गों की व्यवस्था मानी हुई है। जैसे-ततीय भाग के 204 पृष्ठ में 'कडवाइ(ण)-कतावादिन' इत्यादि में पुंस्त्व ही होता है। यद्यपि सभा और कुल का विशेषण मानने से स्त्रीलिंग और नपुंसकलिङ्ग भी हो सकता है किन्तु उन दोनों को ग्रहण नहीं किया है; इसी तरह द्वितीय भाग के 28 पृष्ठ में 'आउक्खेम-आयुःक्षेम' इत्यादि में यद्यपि 'कुशलं क्षेममस्त्रियाम्' इस कोश के प्रामाण्य से नपुंसकत्व और पुंस्त्व भी प्राप्त है तथापि केवल पुंस्त्व का ही स्वीकार है ; क्योंकि काव्यादिप्रयोगों में भी लोकप्रसिद्धि से ही लिङ्ग माना गया है, जैसे अर्द्धर्चादि गण में पद्म शब्द का पाठ होने से पुंस्त्व भी है, तदनुसारही 'भाति पद्मः सरोवरे' यह किसी ने प्रयोग भी किया, किन्तु काव्यानुशासन-साहित्यदर्पण-काव्यप्रकाश-सरस्वतीकण्ठाभरण-रसगङ्गाधरकारादिकों ने पुल्लिङ्ग का आदर नहीं किया है।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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