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________________ 23 दृढ नियमों को परिपालन कर रहे हैं ऐसे आपके उपदेशी केवल जैन ही नहीं हैं किन्तु अन्यमतवाले भी हैं। यति अवस्था में भी आपने सम्वत् 1604 का चौमासा मेवाड़ देशस्थ शहर 'आकोला' में किया था। फिर क्रमशः इन्दौर, उज्जैन, मन्दसोर, उदयपुर, नागौर, जेसलमेर, पाली, जोधपुर, किसनगढ़, चित्तोर, सोजत, शंभुगढ़, बीकानेर, सादरी, भिलाडे, रतलाम, अजमेर, जालोर, घाणेराव, जावरा इत्यादि शहरों में चौमासा कर सैंकड़ों भवभीरु महानुभावों को जैनधर्म के संमुख किया। आपकी विद्वत्ता सारे भारतवर्ष में प्रख्यात थी, कोई भी प्रायः ऐसा न होगा जो आपके नाम से परिचित न हो। ज्योतिषशास्त्र में भी आपका पूर्ण ज्ञान था, जहाँ जहाँ आपके दिये हुए मुहूर्त से प्रतिष्ठा और अञ्जनशलाकाएँ हुई हैं वहाँ हजारों जनसमूह के एकत्र होने पर भी किसी का शिर भी नहीं दुखा / आपके हाथ से कम से कम बाईस अञ्जनशलाकाएँ तो बड़ी बड़ी हुई, जिनमें हजारों रुपये की आमद हुई और छेटी छोटी अञ्जनशलाका या प्रतिष्ठा तो करीब सौ 100 हुई होंगी। इसके अतिरिक्त ज्ञानभण्डारों की स्थापना, अष्टोत्तरी शान्तिस्नात्रपूजा, उद्यापन, जीर्णोद्धार, जिनालय, उपाश्रय, तीर्थसंघ आदि सत्कार्यों में सूरी जी महाराज के उपदेश से भव्यवर्गों ने हजारों रुपये खर्च किये हैं और अब भी आपके प्रताप से हजारों रुपये सत्कार्यों में खर्च किये जा रहे हैं। आपकी साधुक्रिया अत्यन्त कठिन थी इस बात को तो आबालवृद्ध सभी जानते हैं, यहाँ तक कि वयोवृद्ध होने पर भी आप अपना उपकरणादिभार सुशिष्य साधु को भी नहीं देते थे तो गृहस्थों को देने की तो आशाही कैसे संभावित हो सकती है। क्रियाउद्धार करने के पीछे तो आपने शिथिलमार्गों का भी सहारा नहीं लिया और न वैसा उपदेश ही किसी को दिया, किन्तु ज्ञानसहित सत्क्रियापरिपालन करने में आप बड़े ही उत्कण्ठित रहा करते थे। और वैसी ही क्रिया करने में उद्यत भी रहते थे, इसीसे आपकी उत्तमता देशान्तरों में भी सर्वत्र जाहिर थी। प्रभाद शत्रु को तो आप हरदम दबाया ही करते थे, इसीलिये साधुक्रिया से बचे हुए काल में शिष्यों को पढ़ाना और शास्त्रविचार करना, या धार्मिक चर्चा करना यही आपका मुख्य कार्य था। दिन को सोना नहीं, और रात्रि को भी एक प्रहर निद्रा लेकर ध्यानमग्न रहना, इसीमें आपका समय निर्गमन होता था; इसीलिये समाधियोग और अनुभवविचार आपसे बढ़कर इस समय और किसी में नहीं पाया जाता है। शहर 'बड़नगर' के चौमासे में मरुधरदेशस्थ गाँव 'बलदूट' के श्रावक अपने गाँव में प्रतिष्ठा कराने के लिये आपसे विनती करने आये थे, उनसे आपने यह कह दिया था कि 'अब मेरे हाथ से प्रतिष्ठा अञ्जनशलाका आदि कार्य न होंगे'। इसी तरह ‘सूरत' में एक श्रावक के प्रश्न करने पर कहा था कि 'अभी मैं तीन वर्ष पर्यन्त फिर विहारादि करूँगा'। इन दोनों वाक्यों से आपने अपने आयुष्य का समय गर्मित रीति से श्रावक और साधुओं को बता दिया था और ऐसा ही हुआ। आपकी पैदलविहारशक्ति के अगाड़ी युवा साधु भी परिश्रान्त हो जाते थे, इस प्रकार आपने अन्तिम अवस्था पर्यन्त विहार किया, चाहे जितना कठिन से कठिन शीत पड़े परन्तु आप ध्यान और प्रतिक्रमण आदि खुले शरीर से ही करते थे। आपने और अपने जीवन मेंफुलाटीन की साढ़े चार हाथ एक काबली और उतनीही बड़ी दो चादर के सिवाय अधिक वस्त्र भी नही ओढ़ते थे / आपने करीब ढाई सौ मनुष्यों को दीक्षा दी होगी लेकिन कितने ही आपकी उत्कृष्ट क्रया का पालन नहीं कर सके, इसलिये शिथिलाचारी संवेगी और दूंढकों में चले गये, परन्तु इस समय भी आपके हस्त से दीक्षित चालीस साधु और साध्वियाँ हैं जो कि ग्राम ग्राम विहार कर अनेक उपकार कर रहे हैं। सत्पुरुषों का मुख्य धर्म यह है कि भव्यजीवों के हितार्थ उपकार बुद्धि से नाना ग्रन्थ बनाना, जिससे लोगों को शुद्ध धार्मिक रास्ता दिखा। इसीलिये हमारे पूर्वकालीन आचार्यों ने अनेक ग्रन्थ बनाकर अपरिमित उपकार किया है तभी हम अपने धर्म को समझकर दृढ श्रद्धावान्
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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