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________________ (131) [सिद्धहेम. अभियानराजेन्द्रपरिशिष्टम्। [अ०८पा०४] असुलहमेच्छण जाहँ भलि ते ण वि दूर गणन्ति // 1 // अङ्गेषु ग्रीष्मः सुखासिकातिलवने मार्गशीर्षः / कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डान् कांक्षन्ति। तस्याः मुग्धायाः मुखपङ्कजे आवासित शिशिरः // 2 // असुलभं एष्टुं येषां निर्बन्धः (भलि) ते नापि (-नैव) दूर (प्रियतम के विरह में इस मुग्धा संदरी की, एक आंख से श्रावण मास गणयन्ति / / 1 / / और दूसरी आंख से भाद्रपद बरस रहा है ! जमीन पर स्थित बिस्तर (कमलों के पराग को छोड़कर भ्रमर-वृन्द हाथियों के गण्ड-स्थलों पर माघ है / गालों पर शरद ऋतु है,अंग पर ग्रीष्म है। तिल के खेत की इच्छा करते हैं। दुर्लभ वस्तु के आग्रही वे प्राप्ति के लिए कभी दूरी में बैठने के आसन (सुखासिका) पर मार्गशीर्ष है, एवं मुख-कमल पर का विचार नहीं करते। 353.1) शिशिर ऋतु है। 357.2) कान्तस्यात उं स्यमोः // 354|| हिअडा फुट्टि तड त्ति करि कालक्खवें काई / 'क्लीबे ककारान्तनाम्नोऽत 'उ' स्यात् परयोः स्यमोः। देक्खउँ हय-विहि कहि ठवइ पइँ विणु दुक्ख-सयाई॥३|| हृदय स्फुट तटिति (शब्द) कृत्वा कालक्षेपेण किम् / पसरिअसंतुच्छउं, भग्गउंचाऽभिधीयते। पश्यामि हतविधिः क स्थापयति त्वया विना दुःखशतानि ||3|| भग्गउँ देक्खिवि निअय-बलु बलु पसरिअउँ परस्सु / (हे मेरे दुःखी हृदय, तू तङ्-तड़ करके टुकड़े-टुकड़े हो जा-फट जा, उम्मिल्लइ ससि-रेह जिद करि करवालु पियस्सु // 1 // देरी करने से क्या फायदा? मैं भी देखती हूँ कि दैव तेरे सैकड़ों दुःखों भग्नकं दृष्ट्वा निजकं बलं बलं प्रसृतकं परस्य। को कहाँ रखता है ? 357.3) उन्मीलति शशिलेखायथा करे करवालः प्रियस्य।।१।। यत्तत्किभ्यो ङसो डासुर्नवा / / 358|| (युद्ध-भूमि में स्वयं की सेना भागती हुई देखकर तथा शत्रु-सेना यत्तकिंभ्यो ङसो डसुर, अदन्तेभ्यो विकल्प्यते। फैलती हुई देखकर मेरे प्रियतम के हाथ में तलवार चंद्रलेखा के समान जासु तासु तथा कासु, सद्भिरेवं निगद्यते। चमचमाने लगी। 354.1) कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छई रूसइ जासु। सर्वादेर्डसेहाँ // 355 / / अस्थिहिं सस्थिहिं हस्थिहिँ विठाउ वि फेडइ तासु / / 1 / / सर्वादीनामकारान्ताद्,ङसेहाँ स्याद्, जहां तहां। कान्तः अस्मदीयः हला सखिके निश्चयेन रुष्यति यस्य (=यस्मै)। किमो डिहे वा // 356|| अस्त्रैःशस्त्रैः हस्तैरपि स्थानमपि स्फोटयति तस्य॥१॥ किमोऽदन्ताद् डसेर् वा स्याद्, 'डिहे,' रूपं 'किहे' यथा। (हे सखि, मेरा प्रियतम जिससे निश्चय रूप से रुष्ट होता है, उस जइ तहे तुट्टउ नेहडा म. सुहुँ न वि तिलतार। व्यक्ति का मान-सम्मान, स्थान सभी वह अपने अस्त्र से, शस्त्र से या तं किहे वते हि लोअणे हि जोइज्जउँ सयवार ||1|| स्वयं के हाथों से तहस-नहस करता हुआ फोड़ डालता है। 358.1) यदि तस्याःत्रुटयतु स्नेहः मया सह नापि तिलतारः। जीविउ कासु न वल्लहउँ धणु कासु न इट्ट / तद् कस्माद्द्वक्राभ्यां लोचनाभ्यां दृश्ये अहं शतवारम्॥१॥ दोणि वि अवस-निवडिअइं तिण-सम गणइ विसिट्ठ / / 2 / / (यदि मेरे ऊपर का अत्यंत दृढ़ स्नेह टूट ही गया हो और तिलांश जीवितं कस्य न वल्लभकं धनं पुनः कस्य नेष्टम् / भी नहीं रहा हो, तो मैं सैकड़ों बार बाँकी दृष्टि से भला क्यों देखा द्वे अपि अवसरनिपतिते तृणसमे गणयति विशिष्टः // 2 // जा रहा हूँ। 356.1) (प्रतिदिन लोगों को श्मसान में ले जाते हुए देखते हैं। फिर भी जीवन किसे प्रिय नहीं है ? धन की इच्छा किसे नहीं है? परंतु योग्य समय डेहि // 357|| आने पर विशिष्ट व्यक्ति इन दोनों का तृण के समान त्याग कर देते सर्वादीनामकारान्ताद्, डेः स्थाने 'हिं यथा 'जहिं'। हैं / 358.2) जहिँ कप्पिज्जइ सरिण सरु छिज्जइ खग्गिण खग्गु / स्त्रियां डहे // 356 // तहिँ तेहइ भड-घड-निवहि कन्तु पयासइ मग्गु / / 1 / / यत्तत्किभ्यो 'डहे' वाऽस्तु,डसः स्थाने स्त्रियां यथा। यत्र यस्मिन् कल्प्यते शरेण शरः छिद्यते खङ्गेन खङ्गः। जहे तहे कहे चैतत्, त्रयं सिद्धिं समश्नुते। तस्मिन् तादृशे भटघटानिवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम्।।१।। यत्तदः स्यमोधु त्रं // 360 // (युद्ध भूमि में जहां बाण से बाण टकराते हैं और तलवार से तलवार यत्तदोस्तुपदे 'g''त्रं,' वा स्यातां परयोः स्यमोः। कटती हो,ऐसे समय में योद्धाओं के समुदाय में मेरा प्रियतम अन्य नाहु प्रङ्गणि चिट्ठदि, धंत्रं रणि करदिन। योद्धाओं के लिए मार्ग प्रशस्त करता है / 357.1) प्राङ्गण तिष्ठति नाथः तद् रणे करोति न भ्रान्तिम् // 1 // एकहिं अक्खिहिं सावणु अन्नहिं भद्दवउ (मेरा नाथ (पति) प्रागंण में खड़ा है, इसीलिए वह निश्चय ही रणक्षेत्र माहउ महिअल-सत्थरि गण्ड-त्थले सरउ / में भ्रमण नहीं कर रहा है। 360.1) अङ्गि हिं गिम्ह सुहच्छी तिल-वणि मग्गसिरु इदम इमुः क्लीवे // 361 / / तहे मुद्धहे मुह-पकइ आवासिउ सिसिरु // 2 // इमुः स्यादिदमः क्लीबे, स्यमोर्, 'इमु कुलु' स्मृतम्। एकस्मिन् अक्षिण श्रावणः अन्यस्मिन् भाद्रपदः / एतदः स्त्री-पु-क्लीबे एह एहो एहु // 362 / / माधवः (माघः) महीतलस्रस्तरे गण्डस्थले शरत्। स्त्री-पुं-क्लीबे एह एहो, एहु' स्यादेतदः स्यमोः।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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