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________________ आशूर ] [ आशूर m पण्डित हंसदेव रचित 'मृगपक्षिशास्त्र' नामक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त होता है जिसमें व्याघ्र, भालू, गरुड़, हंस, बाज का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन है । आयुर्वेद के आठ अंग माने जाते हैं— शल्यचिकित्सा, शालाक्य, काय, भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, रसायन एवं वाजीकरण । शल्यतन्त्र में शस्त्र-वर्णन तथा शस्त्रकर्म इन दो वस्तुओं की प्रमुखता है । सुश्रुत में यन्त्रों की संख्या १०१ है और हाथ को ही प्रधान यन्त्र माना गया है। सौ यन्त्रों का विभाग इस प्रकार हैस्वस्तिक यन्त्र २४, संदेश यन्त्र २, तालयन्त्र २, नाड़ी यन्त्र २०, शलाका यन्त्र २८, उपयन्त्र २५ । शस्त्रकर्म के आठ प्रकार हैं-छेदन, भेदन, लेखन, वेधन, ऐषण, आहरण, स्रावण तथा सीवन | ( ५७ ) शालाक्यतन्त्र में शलाका का व्यवहार किया जाता है। इसमें ग्रीवा के ऊपर वाले अंगों - आँख, नाक, कान, सिर आदि के रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया जाता है । कायचिकित्सा में आपाद मस्तक होने वाले रोगों का वर्णन एवं उनकी चिकित्सा का विधान रहता है । रोगों के वर्णन में पांच तथ्यों का विवेचन होता है-कारण, पूर्वरूप, रूप, उपशय एवं सम्प्राप्ति । भूतविद्या - इसका सम्बन्ध मानसिक रोगों से होता है जिसके अन्तर्गत उन्माद, अपस्मार, अमानुषोपसगं आदि रोग कौमारभृत्य – इसमें बाल-रोगों का वर्णन होता है । भीतर आता है । आते हैं । योनि व्यापत्तन्त्र भी इसी के अगदतन्त्र - इसमें विष चिकित्सा का वर्णन होता है । रसायन - इसमें जरा और व्याधि के नष्ट करने का वर्णन होता है । वाजीकरण - इसका संबंध पुरुष के अंग में पुंस्त्व की वृद्धि करने से है । शुक्रदोष, नपुंसकता आदि का इसमें विस्तृत विवेचन रहता है । सम्यक् विवेचन प्राप्त होता है और प्रत्येक पर आयुर्वेद में इसके आठों अंग का प्रभूत मात्रा में ग्रन्थों की रचना हुई है । आधारग्रन्थ - १. आयुर्वेद का बृहत् इतिहास - श्री अत्रिदेव विद्यालंकार २. संस्कृत साहित्य में आयुर्वेद - श्री अत्रिदेव विद्यालंकार ३. भैषज्यसंहिता - श्री अत्रिदेव विद्यालंकार ४. रस और रसायन - श्री अत्रिदेव विद्यालंकार ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास - ए० बी० कीथ ६. संस्कृत साहित्य का इतिहास - श्री वाचस्पति गैरोला ७. प्राचीन भारत में रसायनशास्त्र का विकास- डॉ० सत्यप्रकाश ८. वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्पराडॉ० सत्यप्रकाश । आर्यशूर - 'जातकमाला' या 'बोधिसत्त्वावदान माला' नामक ग्रन्थ के रचयिता आशूर हैं । इन्होंने बौद्धजातकों को लोकप्रिय बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । अश्वघोष की भाँति बौद्धधर्म के सिद्धान्तों को साहित्यिक रूप देने में आर्यशूर का भी योगदान है । 'जातकमाला' की ख्याति भारतवर्ष के बाहर भी बोद्धदेशों में थी । इसका चीनी रूपान्तर ( केवल १४ जातकों का ) ६९० से ११२७ ई० के मध्य हुआ था । इत्सिंग के यात्रा-विवरण से ज्ञात हुआ है कि सातवीं शताब्दी में इसका बहुत प्रचार
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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