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________________ सुबन्धु ] ( ६५६ ) [ सुबन्धु पृ० ७१-७३ तथा भारतीय विद्वान् भी 'संस्कृत-काव्यकार पृ० २५९ । इनके माता-पिता, जाति, वंश आदि के सम्बन्ध में है। कोई भी सूचना प्राप्त नहीं होती। अनुमान से ज्ञात होता है कि ये वैष्णव थे क्योंकि ' वदत्ता' के प्रारम्भ में इन्होंने सरस्वती की वन्दना करने के पश्चात् दो श्लोकों में कृष्ण की भी स्तुति की है और एक श्लोक शिव के सम्बन्ध में लिखा है । दण्डी, बाण एवं सुबन्धु की पूर्वापरता के सम्बन्ध में भी विद्वान् एकमत नहीं हैं। डॉ० कीथ एवं एस० के० डे को दण्डी, सुबन्धु एवं बाणभट्ट का क्रम स्वीकार है तथा डॉ० पिटसन बाण को सुबन्धु का पूर्ववर्ती मानते हैं । इन्होंने अपने कथन की पुष्टि के लिए अनेक तर्क दिये हैं और बतलाया है कि सुबन्धु ने बाण की शैली एवं वर्ण्यविषय का अनुकरण किया है । [ दे० पिटसन द्वारा सम्पादित कादम्बरी की भूमिका ( अंगरेजी ) संस्कृत काव्यकार डॉ० हरिदत्त शास्त्री पृ० २६० - ६१ ] । अनेक सुबन्धु को बाण का परवर्ती मानने के पक्ष में हैं। पर, सुबन्धु को बाण का पूर्ववर्ती स्वीकार करने वाले विद्वानों के भी तर्क बेजोड़ हैं। इनके अनुसार वामन कृत 'काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति' में 'सुबन्धु एवं बाणभट्ट दोनों के हो उद्धरण हैं । वामानाचार्य का समय ८०० ई० से भी पूर्व है, अतः दोनों ही लेखक इससे पूर्व हुए होंगे । 'राघवपाण्डवीय' नामक महाकाव्य के प्रणेता कविराज ने सुबन्धु, बाण तथा अपने को वक्रोक्ति में दक्ष बतलाया है । कविराज का समय १२०० ई० है । इन्होंने नामों के क्रम में सुबन्धु को पहले रखा है, अतः सुबन्धु की पूर्वभाविता निश्चित हो जाती है । सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः । वक्रोक्तिमागंनिपुणाश्चतुर्थो विद्यते न वा ॥ प्राकृत काव्य 'गउडवहो' में सुबन्धु का उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु बाण का नहीं । इस काव्य की रचना ७००- ७२५ ई० के मध्य हुई थी। इससे ज्ञात होता है कि अष्टम शताब्दी के आरम्भिक काल में बाण प्रसिद्ध नहीं हो सके थे, जब कि सुबन्धु को प्रसिद्धि प्राप्त हो गयी थी । मंसककृत 'श्रीकण्ठचरित' में क्रमानुसार सुबन्धु का नाम प्रथम है और बाण का पीछे । बाण ने अपनी 'कादम्बरी' में 'अतिद्वयो' का समावेश कर गुणाढयकृत 'बृहत्कथा' एवं 'वासवदत्ता' का संकेत किया है । 'अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया निबद्धेयमतिद्वयी कथा ।' इन मन्तव्यों के आधार पर सुबन्धु बाण के समकालीन या परवर्ती न होकर पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। स्वयं बाण ने भी 'हपंचरित' में 'वासवदत्ता' का नामोल्लेख किया है पर विद्वान् उसे किसी अन्य वासवदत्ता का मानते हैं । विभिन्न ग्रन्थों एवं सुभाषित संग्रहों में 'सुबन्धु' एवं उनकी कृति के सम्बन्ध में अनेकानेक उक्तियाँ प्राप्त होती हैं । ९. कवीनामगलद्दपों नूनं वासवदत्तया । शक्त्येव पाण्डुपुत्राणां गतया कणगोचरम् । हर्षचरित । १११ । २. सुबन्धुः किल निष्क्रान्तो बिन्दुसारस्य बन्धनात् । तस्यैव हृदयं बद्ध्वा वत्सराजो ॥ दण्डी, अवन्तिसुन्दरीकथा ६ । ३. रसैनिरंन्तरं कण्ठे गिरा श्लेबैकलग्नया । सुबन्धुविदधे दृष्ट्वा करे बदरवज्जगत् ॥ सुभाषितावली १६, हरिहर । 1 सुबन्धु ने ग्रन्थ के आरम्भ में अपनी श्लेष -प्रियता का उल्लेख किया है। श्लोक संख्या १३ | सरस्वतीदत्तवरप्रसादश्चक्रे सुबन्धुः सुजनैकबन्धुः । प्रत्यक्षरवलेषमयप्रबन्धविन्यासवैदग्ध्यनिधिर्निबन्धम् ॥ 'सरस्वती देवी मे वर प्रदान कर जिस पर अनुग्रह किया
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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