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________________ सांस्यदर्शन ] [ सांख्यदर्शन अर्थात् प्रत्येक जीव में होता है । परस्पर भिन्न एवं विरुद्धधर्मक पदार्थों से सृष्टि का होना एवं उनका संयोग कैसे सम्भव है । इसका उत्तर देते हुए सांख्य कहता है कि "पुरुष के द्वारा प्रधान का दर्शन तथा प्रधान के द्वारा पुरुष का कैवल्य सम्पन्न होने के लिए पंग और अंधे के समान दोनों का संयोग होता है जिससे सृष्टि होती है ।" प्रलय की स्थिति में तीनों ही गुणसाम्यावस्था में होते हैं, किन्तु प्रकृति मोर पुरुष के संयोग से उनमें क्षोभ या विकार उत्पन्न होता है। सभी गुण परस्पर विरोधी गुणों को दबाने में संलग्न हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनका पृथक्करण हो जाता है । अतः भिन्न-भिन्न अनुपातों में उनके संयोग के कारण सृष्टि प्रारम्भ हो जाती है। सबसे पहले महत्तत्त्व या बुद्धि उत्पन्न होती है । यह सृष्टि की उत्पत्ति में बीज रूप से स्थित रहता है; विद्यमान रहता है । संसार के विकास में महत्वशाली कारण होने से इसे 'महत्' कहा जाता है । तदनन्तर अहंकार का प्रादुर्भाव होता है। 'मैं' और 'मेरा' का भाव ही अहंकार है । इसी के कारण पुरुष अपने को कर्त्ता, कामी तथा स्वामी समझ लेता है, जो उसका मिथ्या भ्रम है । यह साविक, राजस तथा तामस के रूप से तीन प्रकार का होता है । सात्विक अहंकार से एकादश इन्द्रियों की तथा तामस से पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। राजस इन दोनों अहंकारों का सहयोगी होता है । एकादश इन्द्रियों के अन्तर्गत पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय एवं मन आते हैं। पंचतन्मात्राओं के अन्तर्गत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध हैं । शब्द तन्मात्रा से आकाश की, शब्द और स्पर्श के संयोग से वायु की, रूप और शब्द-स्पर्श तम्मात्राओं से अग्नि या तेज की, रस तन्मात्रा तथा शब्द, स्पर्श, रूप तन्मात्राओं से जल की तथा गन्धतन्मात्रा एवं शब्द, स्पर्श, रूप रस तन्मात्राओं के संयोग से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है । प्रमाण - मीमांसा - सांख्य की ज्ञानमीमांसा द्वैत तत्व पर आश्रित है । इसमें केवल तीन प्रमाण मान्य हैं— प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तथा उपमान, अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि को इन्हीं में गतार्थ कर लिया गया है। ( ६४६ ) विवेक ज्ञान है । इसे मोक्ष या कैवल्य-संसार में दुःख का कारण अविवेक एवं दुःख-निवृत्ति का साधन विवेक है। सभी सदा के लिए दुःख से छुटकारा चाहते हैं। सभी प्रकार के दुःखों से मुक्ति ही अपवर्ग या मोक्ष है। मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन पुरुष और प्रकृति से पृथक् होने का ज्ञान कहते हैं। इससे ( विवेक से ) पुरुष और प्रकृति दोनों ही दिखाई पड़ते हैं। आगे चल कर दुःख से निवृत्ति होकर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । पुरुष शारीरिक और मानसिक विकारों से निर्लिप्त रहता है । इसमें सुख-दुःख की व्याप्ति नहीं होती। वह शुद्ध, चैतन्य, नित्य, अविनाशी तथा मुक्त होता है। पुरुष का न तो बन्धन होता है और न मोक्ष। अनेक पुरुषों के आश्रय से रहनेवाली प्रकृति का ही बन्धन और मोक्ष होता है । मृत्यु के उपरान्त देह से मुक्ति हो जाती है और इस अवस्था में स्थूल, सूक्ष्म सभी प्रकार के शरीरों से सम्बन्ध छूट कर पूर्ण मुक्ति प्राप्त हो जाती है । ईश्वर - ईश्वर के प्रश्न को लेकर सांख्यमतानुयायियों में मतभेद है। प्राचीन सांस्यानुयायी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते । ( १ ) उनके अनुसार जगत्
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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