SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 603
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीराधवाचार्य ] ( ५९२ ) [ श्रीरामानुज च गुरु का काल षष्ठ शतक का उत्तरार्द्ध होगा । इस दृष्टि से श्रीमद्भागवत का षष्ठ शतक से अर्वाचीन होना सम्भव नहीं है। पहाड़पुर ( राजशाही जिला, बंगाल ) की खुदाई में प्राप्त राधाकृष्ण की मूर्ति ( पंचम शतक ) इसकी और भी प्राचीनता सिद्ध करती है । भागवत का काल दो सहस्र वर्ष से भी अधिक प्राचीन है और यदि यह किंबदन्ती सत्य हो कि इसकी रचना वेदव्यास ने की थी, तो इसकी प्राचीनता और भी अधिक सिद्ध हो जाती है । श्रीमदभागवत के रचना क्षेत्र के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है । उत्तर भारत को अपेक्षा दक्षिण भारत के तीर्थस्थानों, नदियों एवं भौगोलिक विवरणों में आधिक्य दिखाई पड़ता है, अतः विद्वान् ऐसा निष्कर्ष निकालते हैं कि इसका रचयिता दाक्षिणात्य होगा । इसके एकादशस्कन्ध ( ५।३८-४० ) में द्राविड़ देश की पयस्विनी, कृतमाला, ताम्रपर्णी, कावेरी एवं महानदी का उल्लेख करते हुए यह विचार व्यक्त किया गया है कि कलियुग में नारायण-परायण जन द्रविड़ देश में बहुलता से होंगे एवं अन्य स्थानों कहीं-कहीं होंगे । इसमें यह भी विचार व्यक्त किया गया है। जल पीनेवाले व्यक्ति वासुदेव के भक्त होंगे । विद्वानों ने इस आड़वार भक्तों का संकेत माना है । कि उपर्युक्त नदियों का कथन में द्रविड़ देश के आधारग्रम्य - १ - श्रीमद्भागवत ( हिन्दी टीका सहित ) - गीता प्रेस, गोरखपुर ।२- भागवत - दर्शन -- डॉ० हरवंशलाल शर्मा । ३ – पुराण-विमर्श - पं० बलदेव उपाध्याय । ४ - भागवत सम्प्रदाय - पं० बलदेव उपाध्याय । ५ - भगवत्तत्व- स्वामी करपात्री जी महराज । श्रीराघवाचार्य - इन्होंने दो चम्पू काव्यों की रचना की है जिनके नाम हैं'कुष्ठविजय चम्पू' ( अप्रकाशित, विवरण के लिए दे० डी० सी० मद्रास १२३७४ ) तथा उत्तरचम्पूरामायण' ( अप्रकाशित, विवरण के लिए दे० राइस १८८४ कैटलाइ संख्या २२८९ पृ० २४६ ) | ये वत्सगोत्रोद्भव श्रीनिवासाचार्य के पुत्र थे । इनका समय सत्रहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है । इनके गुरु अहोविलम् मठ के प्रधान श्री रङ्गनाथ थे । श्रीराधवाचार्य रामानुजमतानुयायी थे । 'बैकुष्ठ विजयचम्पू' में जब विजय का त्रिलोकी चरित को जानने के लिए अनेक तीर्थों के भ्रमण करने का वर्णन है । इसकी प्रति खण्डित है । 'उत्तरचम्पूरामायण' में रामायण के उत्तरकाण्ड की कथा वर्णित है। श्री राघवाचार्य का जन्म स्थान तिरुवेल्लोर जि० चेंगलट में था । 'वैकुण्ठः विजयचम्पू' की भाषा सरस एवं सरल है । 'गंगा सभंगा जड़धीष्टसंगा कपालिनोऽये कलितानुषंगा । सूरापगेति प्रथिता कथं नु तोष्ट्रयतेऽसौ भवता निकामम् ॥' आधारग्रन्थ - चम्पू काव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन - डॉ० छविनाथ त्रिपाठी । श्रीरामानुज चम्पू – इस चम्पू काव्य के प्रणेता रामानुजाचार्य हैं जो विशिष्टाद्वैतवाद के आचार्य रामानुज के वंशज थे । इनका समय सोलहवीं शताब्दी का अन्तिम चरण है। इनके पिता का नाम भावनाचार्य था । इस चम्पू में दस स्तबक हैं तथा रामानुजाचार्य ( विशिष्टाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक ) का जीवनवृत्त वर्णित है। इसके गद्य भाग में अनुप्रास एवं यमक का प्रचुर प्रयोग हुआ है और सर्वत्र गोड़ी रीति का
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy