SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिक्षाग्रन्थ ] (५६८) [शिक्षाबन्ध ३-मात्रा-स्वरों के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं । मात्राएं तीन प्रकार की है-हस्व, दीर्घ और प्लुत । एक मात्रा के उच्चारण में लगने वाला समय ह्रस्व, दो मात्रा के उच्चारण के समय को दीघं तथा तीन मात्रा के उच्चारण में लगने वाले समय को प्लुत कहते हैं। ४-बल-स्थान और प्रयत्न को बल कहा जाता है। स्वर या व्यंजन का उच्चारण करते समय वायु टकराकर जिस स्थान पर से निकले उसे उन वर्णो का स्थान कहा जायगा। इस प्रकार के स्थान आठ है । अक्षरों के उच्चारण में किये गए प्रयास को प्रयत्न कहते हैं, जिनकी संख्या दो हैआभ्यन्तर एवं बाह्य प्रयत्न । आभ्यन्तर प्रयत्न के चार प्रकार होते हैं-स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, विवृत्त तथा संवृत्त । बाह्य प्रयत्ल ११ प्रकार का होता है-विवार, संवार, श्वास, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । ५-साम-इसका अर्थ दोष-रहित उच्चारण में होता है। अक्षरों के उच्चारण में उत्पन्न होने वाले दोषों का वर्णन शिक्षा ग्रन्थों में किया गया है । पाणिनि के अनुसार सुन्दर ढंग से पाठ करने के ६ गुण हैं-माधुर्य, अक्षरव्यक्ति, ( अक्षरों का स्पष्टरूप से पृथक्-पृथक् उच्चारण ), पदच्छेद (पदों का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन), सुस्वर (सुन्दर रीति से पढ़ना), धैर्य (धीरतापूर्वक पढ़ना) तथा लयसमयं ( सुन्दर लय से पढ़ना)। माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः। धैर्य लयसमर्थन्च षडेते पाठका गुणाः ।। पा० शि० ३३ । पाणिनिशिक्षा में अधम पाठक के भी ६ लक्षण बतलाये गए हैं-गीति ( गाकर पढ़नेवाला), शीघ्री (शीघ्रता से पढ़ने वाला), शिर:कम्पी (शिर हिलाकर पढ़ने वाला ), लिखितपाठक (लिपिबद्ध पुस्तक से पढ़ने वाला ), अनर्थज्ञ (बिना अर्थ समझे पढ़ने वाला) तथा अल्पकण्ठ ( धीरे-धीरे धीमे से पढ़ने वाला )। गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाठकः। अनर्थशोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाऽधमाः ॥ पा०शि० ३२ । इनके अतिरिक्त पाणिनि ने अन्य निन्दनीय पाठकों का भी विवरण दिया है-शंकित, भीत, उत्कृष्ट, अव्यक्त, सानुनासिक, काकस्वर, खींचकर, स्थानरहित, उपांशु-( मुंह में बुदबुदाना ), दंष्ट, त्वरित, निरस्त, विलम्बित, गद्गद, प्रगीत, निष्पीडित, अक्षरों को छोड़ कर कभी भी दीन पाठ का प्रयोग न करना । पा०शि० ३४,३५ । ६ सन्तानसंहिता को सन्तान कहते हैं जिसका अर्थ पदों की अतिशय सनिधि या निकटता है। प्रत्येक वेद में वर्ण-उच्चारण एक सा न होकर भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। इन विषयों का वर्णन शिक्षाग्रन्थों में विस्तारपूर्वक किया गया है। प्रत्येक वेद की अपनी शिक्षा होती है और उनमें तद्विषयक विवरण दिये गए हैं। आधारग्रन्थ-वैदिक साहित्य और संस्कृति-पं० बलदेव उपाध्याय । शिक्षाग्रन्थ-वैदिक शिक्षाग्रन्थों की संख्या २२ के लगभग है। उनका यहाँ परिचय दिया जा रहा है। १. पाणिनीय शिक्षा-इसमें ६० श्लोक हैं तथा उच्चारण-विधि से सम्बद्ध विषयों का वर्णन है। इसके रचयिता के रूप में दाक्षीपुत्र का नाम दिया गया है। शंकरः शांकरो प्रादाद दाक्षीपुत्राय धीमते । वाङ्मयेभ्यः समाहृत्य देवीं वाचमिति स्थितिः । ५६ । इसके ऊपर अनेक टीकाएं प्राप्तहोती हैं। २. याज्ञवल्क्य शिक्षा-इसमें २३२
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy