SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 570
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याकरण- शास्त्र का इतिहास ] ( ५५९ ) [ व्याकरण शास्त्र का इतिहास सोमदेव की टीका है । इसमें मौलिकता अल्प है और पाणिनि के सूत्रों को अपने सम्प्रदायानुसार ग्रहण कर लिया गया है । शाकटायन-संप्रदाय - श्वेताम्बरीय जैन विद्वान् शाकटायन ने 'शब्दानुशान' नामक व्याकरण ग्रन्थ लिख कर शाकटायन सम्प्रदाय की परम्परा का प्रवर्तन किया, जिनका समय नवम शताब्दी है। इस पर उन्होंने स्वयं टीका लिखी जो 'अमोघवृत्ति' के नाम से प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ के उपजीव्य पाणिनि, चान्द्र व्याकरण एवं जैनेन्द्र व्याकरण रहे हैं । हैम सम्प्रदाय - प्रसिद्ध जैनाचार्य सिद्ध हेमचन्द्र ने ( १०८८-१९७२ ई० ) 'शब्दानुशासन' नामक प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ लिखा है जिस पर इन्होंने 'बृहद्वृत्ति' नामक टीका लिखी है । अष्टाध्यायी की भाँति इसमें भी आठ अध्याय हैं तथा सूत्रों की संख्या ४५०० है । इसके अन्त में प्राकृत का भी व्याकरण दिया गया है। इस पर अनेक छोटे-छोटे ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें 'हैमलघुप्रक्रिया' ( विनयविजयाग्नि कृत ) तथा 'मोदी' ( मेधाविजय कृत ) प्रसिद्ध है । कातंत्र सम्प्रदाय - शवंशर्मा या शिवशर्मा द्वारा 'कातंत्रशाखा' का प्रवत्तन हुआ है जो कातंत्र, कीमार और कलाप के नाम से प्रसिद्ध है । इसका समय ई० पू० प्रथम शताब्दी है । इसमें कुल १४०० सूत्र थे जिस पर दुर्गासिंह की वृत्ति है । सारस्वत सम्प्रदाय - नरेन्द्र नामक व्यक्ति ( १३ वीं शताब्दी का मध्य ) ने ७०० सूत्रों में 'सारस्वत व्याकरण' की रचना की थी जिसमें पाणिनि के है । इसका उद्देश्य व्याकरण का शीघ्रबोध कराना था । ही मत का समावेश बोपदेव एवं उनका सम्प्रदाय - बोपदेव ने 'मुग्धबोध' नामक व्याकरण की रचना की है । इनका समय १३ वीं शताब्दी है । इनका उद्देश्य था व्याकरण को सरल नाना जिसके लिए इन्होंने कातंत्र एवं पाणिनि का सहारा ग्रहण किया है। यह व्याकरण बहुत लोकप्रिय हुआ था । अन्य सम्प्रदायों का महत्व गौण है । भोज कृत सरस्वतीकण्ठाभरण - धारानरेश महाराज भोज ने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' नामक बृहद व्याकरण-ग्रन्थ लिखा है ( समय १००५ से १०५४ ई० ) । इसमें आठ अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय ४ पादों में विभाजित है । इसको सूत्र संख्या ६४११ है । इसके प्रारम्भिक सात अध्यायों में लौकिक शब्दों का तथा आठवें अध्याय में वैदिक शब्दों का सन्निवेश किया गया है तथा स्वर का भी विवेचन है । जोमर शाखा - १३ वीं - १४ वीं शताब्दी के मध्य क्रमदीश्वर नामक वैयाकरण ने पाणिनिव्याकरण को संक्षिप्त कर 'संक्षिप्तसार' नामक ग्रन्थ की रचना की थी । ये जौमर सम्प्रदाय के प्रवत्तंक थे । इनके ग्रन्थ पर जमुरनन्दी ने टीका लिख कर जीमर शाखा का परिष्कार किया । व्याकरण-दर्शन- संस्कृत व्याकरण शास्त्र का चरम विकास व्याकरण-दर्शन के रूप में हुआ है और अन्ततः वैयाकरणों ने शब्द को ब्रह्म मान कर उसे शब्द ब्रह्म की संज्ञा दी है । व्याकरण-दर्शन की महत्वपूर्ण देन हैं—स्फोट- सिद्धान्त । व्याकरण के दार्शनिक रूप का प्रारम्भ पतंजलि के महाभाष्य से हुआ और इसका पूर्ण विकास हुमा भर्तृहरि
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy