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________________ वैदिक देवता ] ( ५४६ ) [ वैदिक देवता उनके स्वरूप का इस प्रकार वर्णन है—वे बलिष्ठ शरीर वाले तथा जटाजूट से युक्त मस्तक वाले हैं । उनके होठ अत्यन्त सुन्दर हैं जिससे उन्हें 'सुशिप्रः' कहा गया है । उनकी आकृति देदीप्यमान है तथा जटाओं का रङ्ग भूरा है। वे नाना प्रकार का रूप धारण करते हैं तथा उनके अङ्गों में सुवणं के विभूषण चमकते रहते हैं । रुद्र रथ पर चढ़ते हैं । रुद्रसूक्तों में उनके भयंकर एवं दारुण रूप का वर्णन है । यजुर्वेद के रुद्राध्याय में उन्हें सहस्रनेत्र वाला कहा गया है और वे नीलग्रीव बताये गये हैं । उनके कंठ का रंग उजला है ( शितिकण्ठ ) तथा सिर पर जटाजूट है । उनके केशों का रङ्ग लाल या नीला है । कहीं-कहीं उन्हें मुण्डित केश भी कहा गया है । वे प्रायश: धनुष धारण किये हुए वर्णित हैं तथा कहीं-कहीं वज्र एवं विद्युन्मय अस्त्र धारण किये हुए चित्रित किये गये हैं । वे अन्तरिक्ष के 'लोहित वराह' हैं, उनका स्वरूप भीषण तथा घातक है । रुद्रसूक्तों में वे प्रायः भयानक देवता के रूप में वर्णित हैं, पर परवर्ती वैदिक साहित्य में उनका रूप और भी अधिक उग्र हो गया है तथा वे संहारकारी प्रकट हुए हैं। ऋग्वेद में 'शिव' नाम भी रुद्र के ही विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है । उनका रूप कहीं भी अपकारी नहीं है, क्योंकि वे कष्ट शमन के साथ-ही-साथ वरप्राप्ति तथा मानव और पशुवर्ग के कल्याण के लिए भी स्तुत किये गए हैं। उनका नाम त्रयम्बक भी है और इसका प्रयोग ऋग्वेद के एक मन्त्र में किया गया है— ध्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । ७।५३|१४| रुद्र अग्नि के प्रतीक हैं और अग्नि के भौतिक आधार पर ही उनकी कल्पना की गयी है । अग्नि की उठती हुई शिखा के रूप में ऊर्ध्वं शिवलिंग की भावना की गयी है । मरुत - मरुत देवता रुद्र के पुत्र के रूप में वर्णित हैं। ऋग्वेद के ३३ सूक्तों में स्वतन्त्र रूप से तथा ७ सूक्तों में इन्द्र के साथ उनका वर्णन किया गया है । उनकी संख्या कहीं २१ और कहीं १०० बतलायी गयी है । रङ्ग-विरङ्गे जलद-धेनु 'प्रश्नि' उनकी माता है । उनकी पत्नी का नाम रोदसी देवी है और वे उनके रथ पर आरूढ़ रहती हैं । उनकां रङ्ग सुवर्ण के समान तथा अग्नि के सदृश प्रकाशपूर्ण है । उनका प्रभाव अपूर्व है जिसके समक्ष पर्वत एवं द्यावापृथिवी कांपते रहते हैं । उनका प्रधान कार्य जल की वर्षा करना है जिससे वे पृथ्वी को ढंक लेते हैं। वे इन्द्र के प्रधान सहायक होकर वृत्रासुर के वध में सहायता करते हैं। उनकी प्रार्थना विपत्तियों से रक्षा करने के लिए, रोग का निवारण करने के लिए तथा दृष्टि करने के लिये की गयी है । विद्युत से चमकते हुए सुवर्णमय रथ पर वे आरूढ़ रहते हैं । उनका स्वरूप वन्य वराह की भांति भीषण चित्रित किया गया है । अग्नि - पृथिवी स्थान के देवताओं में अग्नि प्रधान हैं। वे यज्ञीय अग्नि का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी स्तुति लगभग दो सो सूक्तों में की गयी है जिससे प्राधान्य की दृष्टि से उनका स्थान इन्द्र के बाद सिद्ध होता है। उनका स्वरूप गर्जनशील वृषभ के सदृश कहा गया है। उत्पत्ति काल में वे एक बछड़े की भांति एवं प्रज्वलित होने पर देवताओं को लानेवाले अश्व की तरह प्रतीत होते हैं। उनकी ज्वाला को
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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