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वेदाङ्ग ]
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[ वेदाङ्ग
निश्चय करने में ४- छन्द - वैदिक
किया गया है । प्रत्येक वेद के अलग-अलग श्रौतसूत्र हैं । ख - गृह्यसूत्र - इनमें गृहाग्नि में सम्पन्न होने वाले यज्ञों, विवाह, उपनयन प्रभृति विविध संस्कारों का वर्णन होता है । प्रत्येक वेद के अपने-अपने गृह्यसूत्र हैं । गन्धर्मसूत्र - धर्मसूत्रों में चतुर्वणं एवं चारो आश्रमों के कर्तव्यों का विवेचन किया गया है। ये 'हिन्दूविधि' या स्मृतिग्रन्थों के मूल स्रोत हैं । घ शुल्बसूत्र - इन ग्रन्थों में वेदिका निर्माण की क्रिया का विवेचन है । भारतीय ज्यामितिशास्त्र का रूप इन्हीं ग्रन्थों में प्राप्त होता है । दे० धर्मसूत्र ] । ३ – व्याकरण - व्याकरण में पदों की प्रकृति एवं प्रत्यय का विवेचन कर उनके वास्तविक रूप का प्रतिपादन किया जाता है तथा उसके द्वारा ही शब्दों के अर्थ का ज्ञान होता है। पदों का स्वरूप एवं अर्थ का उपयोगिता दिखाई पड़ती है ! दे, व्याकरण ] | अधिकांश पद्यबद्ध है । अत: उसके वास्तविक ज्ञान के लिए वैदिक मन्त्रों के छन्दों का परिचय आवश्यक है । वैदिक छन्दों में लघु-गुरु की गणना नहीं होती, केवल अक्षरों कोही गणना होती है । वैदिक छन्दों के नाम हैं - गायत्री ( ८+८+८ अक्षर ), उष्णिक् ( ८ +८+१२), अनुष्टुप् ( ८ अक्षरों के चार चरण) बृहती ( ८+८+ १२ + अक्षर), पंक्ति ( आठ अक्षरों के पांच पाद), त्रिष्टुप् ( ११ अक्षरों के चार पाद ), जगती ( १२ अक्षरों के चार पाद ) । ५ – ज्योतिष - वैदिक यज्ञां के विधान के लिए विशिष्ट समय का ज्ञान आवश्यक होता है । दिन, रात, ऋतु, मास, नक्षत्र, वर्ष आदि का ज्ञान ज्योतिष द्वारा ही प्राप्त होता है । यज्ञ-याग के लिए शुद्ध समय की जानकारी ज्योतिष से ही होती है । 'तैत्तिरीय आरण्यक' में ऐसा विधान किया गया है, जिसके अनुसार ब्राह्मण को वसन्त में अग्नि का आधान करना चाहिए, क्षत्रिय
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को
को ग्रीष्म में तथा वैश्य शरत् ऋतु में। कुछ यज्ञ सायंकाल में, कुछ प्रातःकाल में, कुछ विशिष्ट मासों एवं विशिष्ट पक्षों में किये जाते हैं। इन नियमों का वास्तविक निर्वाह बिना ज्योतिष के हो नहीं सकता । इसलिए विद्वानों ने ऐसा विधान किया कि ज्योतिष का जानकार ही यज्ञ करे । वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालाति पूर्वा विहिताश्च यज्ञाः । तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद स वेद यज्ञम् ॥ वेदाङ्गज्योतिष श्लोक ३ | ज्योतिष को वेद पुरुष का चक्षु माना गया है। ज्योतिषज्ञान के बिना समस्त वैदिक कार्य अन्धा हो जाता है [ दे० ज्योतिष ] । 'वेदाङ्ग ज्योतिष' में ज्योतिष को वेद का सर्वोत्तम अंग सिद्ध किया गया है । मयूरों को शिखा एवं सर्पों की मणि की तरह ज्योतिष भी वेदांगों का सिर है - यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥ वेदान्त ज्यो० ४।६ - निरुक्त – निरुक्त पदों की व्युत्पत्ति या निरुक्ति करता है । इसमें मुख्यरूप से वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति जानने के नियम हैं । निरुक्त. 'निघण्टु' संज्ञक वैदिक कोश का भाष्य है जिसमें सभी शब्दों की व्युत्पत्ति दी गयी है । निरुक्त के द्वारा वैदिक शब्दों के 'अर्थावगम' में सहायता प्राप्त होती है [ दे० निरुक्त तथा निघण्टु ] । शिक्षा प्रभृति षडंगों का विभाजन 'पाणिनिशिक्षा' में इस प्रकार किया गया है- छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्ती कल्पोऽय पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ ४१, शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं
व्याकरण की संहिता का