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________________ बैद परिषय] ( ५३२ ) [वेद परिचय 'बाह्मण' शब्द ग्रन्थविशेष का द्योतक है, 'ब्रह्मन्' के कई अर्थ होते हैं उनमें एक अर्थ या भी है। अतः ब्राह्मण ग्रन्थ उन्हें कहते हैं, जिसमें यज्ञ की विविध क्रियाओं का बर्षन हो। ब्राह्मण के तीन विभाग किये गए हैं-ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् । स्वरूप-भेद से वेद के तीन प्रकार होते हैं-ऋक् , यजुः तथा साम। जिसमें अर्थवशात् पादव्यवस्था हो उसे ऋक् या ऋचा कहते हैं-तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्थाजैमिनीसूत्र २॥१॥३५ इन ऋचाओं पर गाये जाने वाले गायन को गीतिरूप होने से साम कहा जाता है-गीतिषु सामाख्या-जैमिनीसूत्र २।१।३६। ऋचाओं और सामों से अतिरिक्त मन्त्रों को यजुष कहा जाता है-शेषे यजुःशब्दः, जैमिनिसूत्र २।१।३७। इस प्रकार तीन तरह के मन्त्रों के होने से वेदत्रयी कहे जाते हैं। संहिता की दृष्टि से वेदों के चार विभाग किये गए हैं और मन्त्रों के समूह को 'संहिता' कहते हैं। यज्ञानुष्ठान को ध्यान में रखकर विभिन्न ऋत्विजों के उपयोगार्थ मन्त्र संहिताओं के संकलन किये गए हैं। इस प्रकार का संकलन वेदव्यास द्वारा किया गया है जिनकी संख्या ( मन्त्र संहिताओं की ) चार है-ऋक्संहिता, सामसंहिता, यजुषसंहिता और अथवंसंहिता । यज्ञ में चार प्रकार के व्यक्तियों की आवश्यकता होती है और उन्हीं के आधार पर चारो संहिताओं का उपयोग किया जाता है। चार ऋत्विज हैं-होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा । होता नामक ऋत्विज होत्रकर्म का सम्पादन करता है। अर्थात् यज्ञानुष्ठान के समय वह 'ऋग्वेद' का पाठ करते हुए यज्ञानुरूप देवताओं का आह्वान करता है । होता का अर्थ है 'पुकारनेवाला'। यह देवताओं को मन्त्रों के द्वारा पुकार कर यज्ञ में आसीन कराता है। उद्गाता का अर्थ है 'गानेवाला' । यह औदगात्र कर्म का सम्पादक होता है। इसका सम्बन्ध 'सामवेद' से होता है और यह यज्ञीय देवताओं की स्तुति करता हुआ सामगान करता है। ये सामगान स्तोत्र के नाम से अभिहित होते हैं। उद्गाता के ही कार्य की सिद्धि के लिए 'सामवेद' के मन्त्रों का संकलन किया गया है। अध्वर्यु का काम यज्ञकार्यों का नियमपूर्वक सम्पादन करना है। इसका सम्बन्ध 'यजुर्वेद' से है। यह यज्ञकर्मों का सम्पादक प्रधान ऋत्विज हुआ करता है और यजुर्वेद' के मन्त्रों का उच्चारण कर अपना कार्य सम्पादित करता है, बह्मा का उत्तरदायित्व सर्वाधिक है। यह यज्ञ का सर्वोच्च अधिकारी होता है तथा इसकी ही देखरेख में यज्ञ का सारा काम सम्पन्न होता है । यज्ञ की बाहरी विनों से रक्षा, स्वरों की अशुद्धियों का मार्जन तथा यज्ञीय अनुष्ठान में उत्पन्न होने वाले दोषों का दूरीकरण आदि इसके प्रधान कार्य हैं। यह यज्ञ का अध्यक्ष होकर उसके सम्पूर्ण अनुष्ठान का उत्तरदायित्व ग्रहण करता है। इसका अपना कोई निजी वेद नहीं होता। इसे समस्त वेदों का माता माना जाता था, पर कालान्तर में इसका प्रधान वेद अथर्ववेद माना जाने लगा। इन्हीं चारो ऋत्विजों को दृष्टि में रखते हुए चार वेदों के रूप में मन्त्रों का संकलन किया गया है, जिसका संकेत 'ऋग्वेद' के एक मन्त्र में है-ऋचा त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान् गायत्रं त्वो गायति शकरीषु ब्रह्मा त्यो वदन्ति जातविद्यां यज्ञस्य मात्र विमिमीत उ त्वः ॥ १०७१।११ वेदों के रूप में भारतवर्ष की अखण्ड साहित्यिक परम्परा ६ सहन वर्षों से सतत
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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