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________________ आचार्य दण्डी] ( ४३ ) [ आचार्य दिग्विजय चम्पू समान होती है। दोषों के कारण काव्य उसी प्रकार अग्राह्य हो जाता है जिस प्रकार सुन्दर शरीर श्वेत कुष्ठ से युक्त होने पर गहित हो जाता है गोर्गोः कामदुधा सम्यक् प्रयुक्ता स्मर्यते बुधैः । दुष्प्रयुक्ता पुनर्गोत्वं प्रयोक्तः सैव शंसति ।। तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथंचन । स्याद् वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणकेन दुर्भगम् ॥ १।६,७ दण्डी ने सर्वप्रथम वैदर्भी, गौड़ी एवं पांचाली रीतियों का पारस्परिक भेद स्पष्ट किया और श्लेष, प्रसाद, समता प्रभृति दस दोषों को वैदर्भीरीति का प्राण कहाइति वैदर्भमार्गस्य प्राण्यदशगुणाः स्मृताः ११४२ । दण्डी के इसी विचार के कारण आधुनिक विद्वान् इन्हें रीतिवादी आचार्य भी स्वीकार करते हैं । अलंकार के संबन्ध में दण्डी की दृष्टि अत्यन्त व्यापक है और वे रस, रीति एवं गुण को अलंकार में ही अन्तर्मुक्त कर देते हैं । यद्यपि इन्होंने रस, रीति एवं गुण के अस्तित्व को स्वीकार किया है पर उनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानते, और न उन्हें अधिक महत्त्व देते हैं। इन सबों को इन्होंने अलंकार के साधक तत्त्व के ही रूप में स्वीकार किया है। महाकाव्य के वर्णन में दण्डी ने अवश्य ही रस की महत्ता स्वीकार की है। इन्होंने काव्य के तीन प्रकार माने हैं-गद्य, पद्य एवं मिश्र तथा पद्य के मुक्तक, कुलक, कोष, संघात आदि भेद किये हैं। पद्य के भेदों में दण्डी ने महाकाव्य के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है___अलंकार-विवेचन के क्षेत्र में दण्डी की अनेक नवीन स्थापनायें हैं। इन्होंने उपमेयोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्ययोगिता, भ्रान्तिमान् एवं संशय को उपमा काही प्रकार माना है। इन्होंने उपमा के ३३ भेद किये हैं जिनमें से अनेक भेदों को परवर्ती आचार्यों ने स्वतन्त्र अलंकार के रूप में मान्यता दी है। दण्डी ने भामह द्वारा निरस्त हेतु, सूक्ष्म एवं लेश अलंकार को 'वाणी का उत्तम भूषण' मान कर उन्हें स्वतन्त्र अलंकार का रूप दिया तथा 'दीपकावृत्ति' नामक दीपक अलंकार के नवीन भेद की उद्भावना की। इन्होंने भामह द्वारा अप्रतिष्ठित स्वभावोक्ति अलंकार को अलंकारों की पंक्ति में प्रथम स्थान देकर उसकी महत्ता स्वीकार की और यमक, चित्र एवं प्रहेलिका का विस्तृत विवेचन कर उनका महत्त्व दर्शाया। इन्हीं नवीन तथ्यों के विवेचन के कारण दण्डी का महत्त्वपूर्ण योग माना जाता है। आधार ग्रन्थ-१. भारतीय साहित्यशास्त्र भाग १,२,-आ० बलदेव उपाध्याय २. अलंकारानुशीलन-राजवंश सहाय 'हीरा' ३. भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिनिधि सिद्धान्त-हीरा'। आचार्य दिग्विजय चम्पू-इस चम्पू काव्य के रचयिता कवि बली सहाय हैं। काव्य का रचनाकाल १५३९ ई० के आसपास है। ये बाघुल गोत्रोद्भव व्यक्ति थे । इसमें कवि ने आचार्य शंकर के दिग्विजय को वर्ण्य विषय बनाया है। इस चम्पू का आषार ग्रन्थ है आनन्दगिरि कृत 'शंकरदिग्विजय' काव्य । सम्प्रति यह चम्पू अप्रकाशित
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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