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बेणीसंहार ]
( ५२१ )
[ वेणीसंहार
की इच्छा व्यक्त करना 'आरम्भ' नामक अवस्था है । द्वितीय अंक में जयद्रथ की माता द्वारा अर्जुन के पराक्रम का वर्णन करना 'यत्न' है । तृतीय एवं चतुर्थ अंक में प्राप्याशा का रूप दिखाई पड़ता है । भीमसेन के इस कथन में 'सोऽयं मद्दभुजपजरे निपतितः संरक्ष्यतां कौरवः' तथा चतुथं अंक में दुर्योधन की मृत्यु की संभावना के सूचक श्लोक ( २, ३, ४, ९ ) इसी अवस्था के द्योतक हैं। छठे अंक में दुर्योधन का पता लग जाना तथा पांचालक का कृष्ण का सन्देश लेकर युधिष्ठिर के पास आना 'नियताप्ति' है । अन्तिम अवस्था 'फलागम' का रूप भीमसेन द्वारा द्रौपदी के केश-संयमन में दिखाई पड़ता है ।
पात्र तथा चरित्र-चित्रण - भट्टनारायण ने पात्रों के शील-निरूपण में अपूर्व सफलता प्राप्त की है । यद्यपि महाभारत से कथावस्तु लेने के कारण, भट्टनारायण पात्रों के चरित्र-चित्रण में पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं थे फिर भी उन्होंने यथासंभव उन्हें प्राणवन्त एवं वैविध्यपूर्ण चित्रित किया है। इसके प्रमुख पात्र हैं— भीम, दुर्योधन, युधिष्ठिर, कृष्ण, अश्वत्थामा, कणं एवं धृतराष्ट्र । नारी चरित्रों में द्रौपदी, भानुमती एवं गान्धारी हैं ।
भीमसेन - 'वेणीसंहार' नाटक में आद्यन्त भीमसेन का प्रभाव परिदर्शित होता है तथा प्रत्येक अंक में उसकी रोषपूर्ण गर्जना तथा प्रतिज्ञा सुनाई पड़ती है। वह रोष, स्फूर्ति एवं उत्साह का प्रतीक एवं दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति के रूप में चित्रित है । युधिष्ठिर उसे 'प्रियसाहस' के नाम से सम्बोधित करते हैं। इस नाटक का प्रारम्भ भीमसेन के ही प्रवेश से होता है तथा पूरे नाटक पर उसके व्यक्तित्व की अखण्ड छाप दिखाई पड़ती है । वह प्रारम्भ से ही प्रतिशोध की ज्वाला में संतप्त है एवं साथ श्रीकृष्ण की सन्धि-वार्ता उसके लिए असह्य है । उसका प्रतिशोध और इसके लिए यदि उसके बड़े भाई युधिष्ठिर अवरोध उपस्थित करें, तो वह उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने को भी प्रस्तुत है । तृतीय अंक में सारी कौरव सेना के समक्ष वह दुःशासन को पकड़ कर, कौरवों को उसकी रक्षा की चुनौती देता हुआ, उसे मार कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता है। पंचम अंक में वह दुर्योधन के सम्मुख बुद्ध एवं विकल धृतराष्ट्र को कटूक्तियों के प्रहार से व्यथित कर देता है, जिसमें उसका जंगलीपन एवं उद्धत स्वभाव प्रकट होता है । वह ऐसा दर्पोम्मत्त उद्धत नायक है जिसके व्यक्तित्व की एकमात्र विशेषता है-प्रतिशोध एवं प्रतिज्ञा-पूर्ति । उसकी गर्वोक्तियों के द्वारा नाटककार ने रौद्ररस की सृष्टि अपूर्व सफलता प्राप्त की है। वह अपमान का बदला लेने के आवेश में उचितानुचित को भी भूल जाता है और यही उसके चरित्र का दुर्बल पक्ष है ।
दुर्योधन- इस नाटक में दुर्योधन के चरित्र में विविधता दिखाई पड़ती है । बहुत अंशों में इसका चरित्र भीमसेन से साम्य रखता है । वह भीम की भाँति उद्धत स्वभाव का है तथा कभी भी, किसी परिस्थिति में भी, हाथ-पर-हाथ धर कर नहीं बैठता । हड़ निश्चय उसके चरित्र की बहुत बड़ी विशेषता है। वह आत्मविश्वासी है, अतः उसे अपनी विजय पर दृढ़ विश्वास है । इस नाटक में वह सर्वप्रथम द्वितीय अंक में दिखाई
कौरवों के
भयंकर है,