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________________ मुद्राराक्षस [मुद्राराक्षस उसकी बुद्धि पर्याप्त है। एकाकेबलमर्थसाधनविधी सेनाशतेभ्योऽधिका । नन्दोन्मूलनदृष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥ १।२६ । वह अपूर्व दूरदर्शी है क्योंकि राक्षस की बुद्धिमत्ता एवं पटुता को समझ कर ही उसे अपने वश में करना चाहता है। वह उसका संहार न कर उसे चन्द्रगुप्त के अमात्य-पद पर अधिष्ठित करने के लिए सारा खेल करता है। उसने अपने अनुचरों को कड़ा आदेश दे रखा है कि किसी भी स्थिति में राक्षस के प्राण की रक्षा की जाय । उसे पूर्ण विश्वास है कि राक्षस की अपूर्व मेधा एवं चन्द्र गुप्त की शक्ति के समन्वय से ही मौर्य-साम्राज्य का दृढ़ीकरण सम्भव है। वह मानव मनोभावों का अपूर्व ज्ञाता है तथा राक्षस के महत्व को जितना समझता है उतना स्वयं राक्षस भी नहीं जानता। वह अहंवादी है तथा दूसरों की कभी भी चिन्ता नहीं करता । वह क्रोधी भी इस प्रकार का है कि उसके नाम से ही आतंक छा जाता है। चाणक्य सदा सावधान रहता है तथा छोटे शत्रु को भी उपेक्षा नहीं करता-कायस्थ इति लध्वी मात्रा, तथापि न युक्तं प्राकृतमपि रिपु. मवज्ञातुम् । वह कार्यभारवाहकों को सदा पारितोषिक एवं प्रोत्साहन देता रहता है, और श्लेषगुक्त वचनों को भी पहचान लेता है। उसका प्रत्येक कार्य सप्रयोजन होता है। राक्षस उसे रत्नों का सागर कहता है । 'नहि प्रयोजनमनपेक्ष्य स्वप्नेऽपि चाणक्यश्चेष्टते। आकरः सर्वशास्त्राणां रत्नानामिव सागरः । गुणनं परितुष्यामो यस्य मत्सरिणो वयम् ॥ ७७ । उसके गुण की प्रशंसा शत्रु और मित्र दोनों ही करते हैं। भागुरायण उसकी नीति के सम्बन्ध में इस प्रकार कहता है-मुहूर्ताक्ष्योझेदा मुहुरधिगमा भावगहना, मुहुः सम्पूर्णाङ्की मुहुरतिकृशा कार्यवशतः । मुहुभ्रंश्वबीजा मुहरपि बहुप्रापितफलेत्यही चित्राकारा नियतिरिव नीतिनंयविदः ।। १३ । 'कभी तो चाणक्य की गूढ़ चालें प्रकाशित होने लगती हैं और कभी इतनी गहन हो जाती हैं कि बुद्धिगम्य नहीं हो पातीं, कभी अपने सम्पूर्ण रूप से दृष्टिगत होती हैं, कभी किसो कार्यविशेष से अत्यन्त धुंधली हो जाती हैं, कभी उनका बीज तक नष्ट होना प्रतीत होता है और कभी विविध फलों से युक्त हो जाती है। वास्तव में चाणक्य की नीति नियति की भांति विचित्र आकार प्रदर्शित करती है। कुल मिलाकर चाणक्य महान् राजनीतिज्ञ, महामानव, कूटनीति-विशारद, दृढ़प्रतिज्ञ, 'एवं निस्पृह है। वह शत्रु के गुण को भी महत्त्व देता है। राक्षस के चशवर्ती हो जाने पर वह उसे 'महात्मा' कहता है और राक्षस के परिवार को जब चन्दनदास उसे नहीं सौंपता तो वह मन ही मन उसकी प्रशंसा करता है। राक्षस-इस नाटक का दूसरा प्रसिद्ध पात्र राक्षस है जो चाणक्य के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में चित्रित है। यह प्रतिनायक का कार्य करता है। कवि ने राक्षस ऐसे प्रतिनायक का चित्रण कर चाणक्य के महत्त्व को तो बढ़ाया ही है साथ ही इस नाटक को भी आकर्षक बना दिया है। राक्षस का व्यक्तित्व मानवीय रूप की विविध भाव-भङ्गियों का रङ्गस्थल है। वह आशाओं एवं निराशाओं के प्रतिघात में अडिग एवं अजेय बना रहता है। उसकी इसी स्वाभाविक महत्ता के कारण चाणक्य उसकी ओर आकृष्ट है, और येनकेन प्रकारेण उसे चन्द्रगुप्त का अमात्य बनाना चाहता
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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