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________________ मीमांसादर्शन] (४००) [ मीमांसादर्शन इसमें ज्ञान के दो प्रकार मान्य हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । एकमात्र सत् पदार्थ को ही प्रत्यक्ष का विषय माना गया है। इन्द्रियों के साथ किसी विण्य का सम्पर्क होने पर ही प्रत्यक्ष का ज्ञान होता है। इसके द्वारा नानारूपात्मक जगत् का ज्ञान होता है और वह ज्ञान सत्य होता है । इसमें प्रत्यय के दो भेद मान्य हैं-निर्विकल्पक और सविकल्पक । इस दर्शन में अन्य पाँच प्रमाण-अनुमान, उपमान, सद, बर्यापत्ति तथा अनुपलब्धि हैं। जिनमें अन्तिम प्रमाण को केवल भाट्ट मीमांसक मानते हैं। न्याय की भांति मीमांसा में भी उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण माना गया है, पर मीमांसा में यह दूसरे अर्थ में ग्रहण किया जाता है। मीमांसा के अनुसार उपमान की स्थिति वहाँ होती है जब पूर्व दृष्ट पदार्थ के समान किसी पदार्थ को देखकर यह समझा बाय कि स्मृत पदार्थ प्रत्यक्ष पदार्थ के समान है। जैसे गाय को देखने वाले व्यक्ति के द्वारा वन में नीला गाय को देखकर दोनों के सादृश्य के कारण गाय की स्मृति हो जाती है, और उसे यह ज्ञात हो जाता है, कि नील माय, गाय के सदृश होती है। अनुमान-मीमांसा में न्याय की तरह अनुमान की कल्पना की गयी है, पर भाट्ट मत की अनुमान-प्रक्रिया नयायिकों से कुछ भिन्न है। न्याय में अनुमान के पन्चायव वाक्य मान्य हैं। [न्याय दर्शन ] पर मीमांसा में केवल तीन ही वाक्य स्वीकार किये गए हैं-प्रतिक्षा हेतु और दृष्टान्त । शब्द-मीमांसा-दर्शन में वेद का प्रमाण्य स्थापित करने के कारण शब्द-प्रमाण को अधिक महत्त्व दिया गया है । जो वाक्य ज्ञान प्राप्त करानेवाला हो तथा वह अनाप्त ( अविश्वस्त ) व्यक्ति के मुंह से न निकला हो उसे शब्द कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं-पौरुषेय और अपौरुषेय । आप्त पुरुष के द्वारा व्यवहृत वाक्य पौरुषेय होता है और अपोरुषेय वाक्य वेदवाक्य या श्रुतिवाक्य होता है। वेदवाक्य के भी दो भेद होते हैं-सिद्धार्थवाक्य तथा विधायकवाक्य । जिस वाक्य के द्वारा किसी सिद्ध विषय का ज्ञान हो वह सिद्धार्थवाक्य तथा जिससे किसी क्रिया के लिए विधि या आमा सूचित हो उसे विधायक वाक्य कहते हैं। वेदवाक्य को मीमांसा में स्वतःप्रमाण या अपौरुषेय माना जाता है। पौरुषेय वाक्य उसे कहते हैं, जो किसी पुरुष के द्वारा कहा गया हो तथा अपौरुषेय वाक्य किसी पुरुष द्वारा निर्मित न होकर नित्य होता है। मीमांसा-दर्शन के अनुसार वेद मनुष्य कृत न होकर अपौरुषेय हैं ( ईश्वरकृत हैं )। इसके अनुसार वेद और जगत् नित्य हैं । वेद को अपौरुषेय मानने के लिए अनेक युक्तियां दी गयी हैं क-नैयायिकों के अनुसार वेद ईश्वर की रचना है, अतः वे वेद को पौरुषेय मानते हैं, किन्तु मीमांसा ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करती, फलतः इसके अनुसार वेद अपौरुषेय है । ख-वेद में कर्ता का नाम नहीं मिलता, किन्तु कतिपय मन्त्रों के ऋषियों के नाम आये हैं, पर वे मन्त्रों के व्याख्याता या द्रष्टा थे, कर्ता नहीं। ग-मीमांसा में 'शब्दनित्यतावाद' की कल्पना कर उसकी महत्ता सिद्ध की गयी है । वेद की नित्यता का सबसे प्रबल प्रमाण शब्द की नित्यता ही है। वेद नित्य शब्दों का भंडार है । लिखित अथवा उच्चरित वेद तो नित्यवेद के प्रकाश हैं। प-वेदों में कर्म
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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