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________________ अभिज्ञान शाकुन्तल ] ( २७ ) [अभिज्ञान शाकुन्तल नीच और अनार्य कह कर डांटती-फटकारती है। उसके तीसरे रूप में गंगा की पवित्रता एवं धवलता है, जो अपूर्व क्षमादात्री के रूप में प्रकट होती है। वह राजा के सारे दोष को विस्मृत कर अपने भाग्य-विपर्यय का दोष मान कर पूर्वजन्माजित कृत्यों का फल स्वीकार करती है और मारीच ऋषि से दुर्वासा के शाप की बात श्रवण कर मानसिक समाधान प्राप्त कर लेती है। ___ इस नाटक के अन्य पात्र भी सजीव एवं निजी वैशिष्ट्य से पूर्ण हैं । कण्व तपस्या एवं साधना की मूति होते हुए भी वात्सल्य स्नेह से आपूर्ण हैं : उनके हृदय में सद्गृहस्थ की भावनायें भरी हुई हैं । शकुन्तला की बिदाई के समय उनके द्वारा ( शकुन्तला को) दी गयी शिक्षा में भारतीय संस्कृति एवं सामाजिक आदर्श का रूप व्यक्त हुआ है। ___ रस-परिपाक-भारतीय नाट्य शास्त्र में नाटक के तीन तत्त्व हैं-वस्तु, नेता और रस । संस्कृत नाटक रसप्रधान होते हैं और उनमें कवि का मुख्य अभिप्रेत रस. निष्पत्ति होता है। रस-व्यंजना की दृष्टि से 'अभिज्ञान शाकुन्तल' का अधिक महत्त्व है। इसका अंगी-रस शृङ्गार है, जिसमें उसके दोनों रूपों-संयोग एवं वियोग-का सुन्दर परिपाक हुआ है। कवि ने संयोग की मादकता एवं वियोग की मर्मद्रावक विह्वलता दोनों की मधुर धारा प्रवाहित की है तथा कहीं-कहीं हास्य, अद्भुत, करुण, भयानक एवं वात्सल्य रस की भी मोहक मियां सजा दी हैं। इस नाटक में साक्षात् दर्शन के द्वारा प्रेमोदय होता है। इसके प्रथम अंक के प्रारम्भ में मृगयाप्रेमी राजा दुष्यन्त के सामने अपने प्राण को बचाने के लिए भागते हुए आश्रम मृगों तथा हाथी द्वारा किये गए विध्वंस में भयानक रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। 'ग्रीवाभङ्गाभिरामं' इस पद्य में आचार्य मम्मट ने भयानक रस माना है। द्वितीय अंक में माढव्य की चटुल एवं परिहासपूर्ण उक्तियों में हास्यरस की छटा छिटकती है। चतुर्थ अंक में शकुन्तला की चिन्ता, दुर्वासा के शाप एवं शकुन्तला की विदाई में करुणरस की व्यंजना हुई है। पंचम अंक में अनेक रसों का मिश्रण है। इसके प्रारम्भ में कंचुकी द्वारा अपनी वृद्धावस्था पर खेद प्रकट करने में कंचुकी की राजविषया रति, राजा का राजपद के प्रति निर्वेद, वैतालिकों की राजविषयारति तथा राजा और विदूषक के संवाद में हास्यरस का आस्वाद होता है। [दे. शकुन्तला-समीक्षा-शकुन्तला हिन्दी अनुवाद की भूमिका पृ० २८ । चौखम्बा ] हंसपादिका के गाने में राजा का दक्षिण-नायकत्व व्यक्त होता है एवं राजा और चारव की क्रोधपूर्ण वार्ता में वीर रस की निष्पत्ति हुई है। दोनों ही धर्मवीर है. और धर्म के लिए परस्पर सगड़ जाते हैं। किसी अदृश्य छाया द्वारा शकुन्तला को उड़ा कर ले जाने के समाचार में अद्भुत रस दिखाई पड़ता है। पंचम अंक के अंकावतार में हास्यरस है जिसमें देश की तात्कालिक स्थिति का वर्णन है। षष्ठ अंक में विप्रलम्भ शृङ्गार का प्राधान्य है। इस अंक में राजा की विरह-वेदना एवं उसकी मनःस्थिति का मनोरम चित्रण है। वियोग शृङ्गार की विविध स्थितियों एवं उपादानों का अत्यन्त विस्तार के साथ चित्रण किया गया है। मातलि
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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