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भट्टनारायण)
(३२५)
[भट्टनारायण
के वेणी का संहार (गूंथना) करता है। इसी कथानक की प्रधानता के कारण इसका नाम 'वेणीसंहार' है।
बालोचकों ने नाटपकला की दृष्टि से 'वेणीसंहार' को दोषपूर्ण माना है, पर इसका कलापक्ष या काव्यतत्व अधिक सशक्त है। भट्टनारायण इस नाटक में एक उच्चकोटि के कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनकी शैली भी नाटक के अनुरूप न होकर काव्यं के अनुकूल है। इनकी शैली पर कालिदास, माघ एवं वाण का प्रभाव है। 'वेणीसंहार' में वीररस का प्राधान्य होने के कारण कवि ने तदनुरूप गौड़ी रीति का आश्रय लिया है और लम्बे-लम्बे समास तथा गम्भीर ध्वनि वाले शब्द प्रयुक्त किये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि अपने शब्द-चयन और अपनी लम्बी-लम्बी समासों से युक्त भाषा से वे वीररसानुरूप ओजगुण को प्रदर्शित करने में पर्याप्त सफल हुए हैं। उनकी गौरी-रीति भीमसेन द्वारा दुन्दुभी की ध्वनि के वर्णन से स्पष्ट हो जायेगा।' संस्कृत-काव्यकार पृ० ३९५ ।मन्यायस्तार्णवाम्भः प्लुतकुहरवलन्मन्दरध्वानषीरः कोणाघातेषु गत्प्रलयपनपटा. न्योन्यसंघट्ट चण्डः। कृष्णाक्रोधागदूतः कुरुकुलनिधनोत्पातनिर्षातवातः केनास्मत्सिहनादप्रतिरखितसखो दुन्दुभिस्ताडितोऽयम् ।। १।१२ इस दुन्दुभि को किसने बजाया ? इसकी ध्वनि समुद्र-मंथन के समय मन्थन-दण्ड से प्रक्षिप्त जल से परिपूरित कन्दरायुत, मन्दराचल के भ्रमण कालीन गम्भीर ध्वनि की भांति है, प्रलयकालीन गर्जते हुए मेषमालाओं के परस्पर प्रताड़ित होने पर निकलने वाले भीषण गर्जन के समान, द्रौपदी के क्रोध का सूचक, सुयोधन के नाश के लिए उत्पातकालीन संशावात के समान और हम लोगों के सिंहनाद की भांति इससे भीषण ध्वनि निकल रही है । भट्टनारायण समासबहुला गौड़ी शैली का प्रयोग गद्य में भी करते हैं। न केवल संस्कृत में मपितु प्राकृत में भी यही शैली अपनायी गयी है। नाटक की दृष्टि से यह शैली उपयुक्त नहीं मानी जाती है। कहीं-कहीं इन्होंने पांचाली एवं वैवी शैली का भी प्रयोग किया है किन्तु ऐसे श्लोकों की संख्या अल्प है। गोड़ी शैली का प्रयोग कर कवि ने वीररस-पूर्ण उक्तियों का समावेश किया है और इस कार्य में पूर्ण सफल हुआ है। भीम के इस कथन में वीररस टपकता है-पञ्चमुजभ्रमितचमगदाभिषातस
चूर्णितोरुयुगलस्य 'सुयोधनस्य । स्त्यानावनग्नशोणितशोणपाणितंसयिष्यति कास्तव . देवि भीमः ।। १।२१। हे देवि ! तुम निश्चित. रहो । यह भीम इस बात की प्रतिज्ञा करता है कि शीघ्र ही अपने दोनों हाथों से घुमाई हुई कठोर गदा की चोट से दुर्योधन की दोनों जांघों को तोड़ कर उसके गाढ़े चिकने खून से रंगे हाथों से तुम्हारे केशों को संवारेगा।' यत्र-तत्र सरस शैली का प्रयोग करते हुए भी कषि ने कोष की भावना को अभिव्यक्त किया है, जैसे भीम के इस कथन में-मण्यामि कोरवशत समरे न कोपाद् दुःशासनस्य रुधिरं न पिवाम्युरस्तः। सञ्चूर्णयामि गदया न सुयोषनोरू सन्धि करोतु भवतां नृपतिः पणेन ॥ १।१५। अलंकारों के प्रयोग में भट्टनारायण काफी सचेत दिखलाई पड़ते हैं। शब्दालंकारों में अनुप्रास और यमक तथा अर्थालंकारों में रूपक, उपमा, परिकर आदि के प्रति कवि का अधिक आकर्षण दिखाई पड़ता है। उपमा का सौन्दर्य द्रष्टव्य है-यपुतमिव ज्योतिराय च संभृतम् । तत्रादरिय कृष्णेयं